Sunday, December 28, 2008

तीर्थकर ऋषभदेव की सार्वभौमिकता


जैन परंपरा के अनुसार काल का न आदि है, न अंत। इतिहास का आलोक तो काल के अनंतवेंभाग मात्र को ही आलोकित कर पाता है। काल का जो भाग इतिहास की पकड में नहीं आता, उसे हम प्रागैतिहासिक काल कह देते हैं। ऐसे ही प्रागैतिहासिक काल के एक शलाका पुरुष हैं- ऋषभदेव जिन्हें इतिहास काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता है। किंतु वे आज भी भारत की सम्पूर्ण भारतीयता तथा जन जातीय स्मृतियों में पूर्णत:सुरक्षित हैं। जैन परम्परा के चौबीस तीर्थकरोंमें ये ही ऐसे तीर्थकरहैं, जिनकी पुण्य-स्मृति जैनेतरभारतीय वाड्.मयऔर परंपराओं में भी एक शलाका पुरुष के रूप में विस्तार से सुरक्षित है। मनुष्य के अस्तित्व के लिए रोटी, कपडा, मकान जैसे पदार्थ आवश्यक हैं, किंतु उसकी आंतरिक सम्पन्नता केवल इतने से ही नहीं हो जाती। उसमें अहिंसा, सत्य, संयम, समता, साधना और तप के आध्यात्मिक मूल्य भी जुडने चाहिए। भगवान् ऋषभदेवने भारतीय संस्कृति को जो कुछ दिया है, उसमें असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मो के द्वारा उन्होंने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया वहां अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को भी जगाया। इस प्रकार भारतीय संस्कृति को उनका अवदान एकांगी न होकर सर्वागीण और चतुर्मुखी है। भारतीय संस्कृति के आंतरिक पक्ष को जो योगदान उन्होंने दिया, उसकी चर्चा संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद इन शब्दों में करता है- त्रिधा बद्धोवृषभोरोरवीतिमहादेवोमत्यांआ विवेश॥

इस मन्त्रांशका सीधा शब्दार्थहै-तीन स्थानों से बंधे हुये वृषभ ने बारंबार घोषणा की कि महादेव मनुष्यों में ही प्रविष्ट हैं। यह घोषणा आत्मा को ही परमात्मा बनाने की घोषणा है। आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने के लिए मन, वचन, काय का संयम आवश्यक है। यह त्रिगुप्तिही वृषभ का तीन स्थानों पर संयमित होना है। आत्मा ही परमात्मा है, यह घोषणा भारतीय संस्कृति को उन सेमेटिकधर्मो से अलग करती है, जिन धर्मो में परमात्मा को परमात्मा और जीव को जीव माना गया है तथा यह कहा गया है कि जीव कभी परमात्मा नहीं हो सकता। किंतु भारतीय चिन्तन में जो आत्मा है, वही परमात्मा है- अप्पा सो परमप्पा।ऋषभदेवका यह स्वर इतना बलवान था कि यह केवल जैनोंतक सीमित नहीं रहा, अपितु पूरे भारतीय चिंतन में व्याप्त हो गया। उपनिषदों ने भी घोषणा की- अयम् आत्मा ब्रह्म। वेदान्त ने तो इतना भी कह दिया कि सब शास्त्रों का सार यही है कि जीव ही ब्रह्म है। जीवो ब्रह्मैवनापर:।यदि धर्म दर्शन के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति को गैर-भारतीय संस्कृति से अलग करने वाला व्याव‌र्त्तकधर्म खोजा जाय तो वह है- आत्मा परमात्मा की एकता और इस तथ्य के अन्वेषण में भगवान् ऋषभदेवप्रभृतशलाका पुरुष का महत्वपूर्ण योगदान है।

जैन तीर्थकरऋषभदेवको अपना प्रवर्तक तथा प्रथम तीर्थकरमानकर पूजा करते ही हैं, किंतु भागवत् भी घोषणा करता है कि नाभि का प्रिय करने के लिए विष्णु ने मरूदेवीके गर्भ से वातरशनाब्रह्मचारी ऋषियों को धर्म का उपदेश देने के लिए ऋषभदेवके रूप में जन्म लिया-नाभे: प्रियचिकीर्षया। तदवरोधायने मेरूदेव्यां धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषिणां ऊ‌र्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततारा (श्रीमद्भागवत 5/3/20)

भागवत् के पांचवें स्कंध के पांचवें अध्याय में उस उपदेश का विस्तार से वर्णन है जिसे ऋषभदेवने दिया था।

जीवननिर्वाह हेतु ऋषभदेवने असि, मसि, कृषि तथा शिल्प की शिक्षा भी दी। भारतीय जनता ऋषभदेवके महान उपकारों के प्रति इतनी ज्यादा समर्पित हुई कि कृतज्ञता वश उनके ज्येष्ठ चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष करके गौरव माना भरताद्भारतंवर्षम्।इस बात को इस कृतज्ञ देश ने इतनी बार दुहराया कि इस नामकरण वाली बात को काल्पनिक कहकर ठुकराया नहीं जा सकता। जन-जन की आस्था के केंद्र तीर्थकरऋषभदेवका जन्म चैत्रशुक्लानवमी को अयोध्या में हुआ था तथा माघ कृष्णा चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाशपर्वतसे हुआ था। आचार्य जिनसेनके आदिपुराणमें तीर्थकरऋषभदेवके जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है। भारतीय संस्कृति के इतिहास में ऋषभदेवही एक ऐसे आराध्यदेवहैं जिसे वैदिक संस्कृति तथा भ्रमण संस्कृति में समान महत्व प्राप्त है।

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