अहो नारद धन्योऽसिविरक्तानांशिरोमणि:। सदा श्रीकृष्णदा-सानामग्रणीर्योगभास्कर:॥ (श्रीमद्भागवत माहात्म्य) सनकादिमुनीश्वरोंद्वारा वर्णित विरक्त शिरोमणि, श्रीकृष्णदासोंमें अग्रगण्य व भक्तियोगके भास्कर देवर्षिनारद, सृष्टिकर्ता साक्षात् ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण में उल्लेख है- ब्रह्माजीके कण्ठदेश(नरद) से उत्पत्तिवशनारद नामकरण हुआ। सृष्टि-विस्तार हेतु नारद की अवज्ञा से कुपित ब्रह्माजीने उन्हें ज्ञान लुप्त होने व पचास कामिनियोंका पति होने का शाप दिया। निरपराध नारद ने भक्ति में बाधक ब्रह्माजीको तीन कल्प व्यतीत होने तक तीनों लोकों में अपूज्य रहने का शाप दिया। गन्धर्व-योनि पाकर अधिक पूज्य होने के कारण अभिशप्त नारद का गुरु वशिष्ठ द्वारा नामकरण हुआ- उपबर्हण। उन्होंने दीर्घकाल तक चित्ररथगन्धर्व की पचास कन्याओं के साथ विहार किया। रम्भाअप्सरा का नृत्य देख सम्मोहित होने के कारण क्रुद्ध ब्रह्माजीने उन्हें शूद्र-योनि प्राप्त होने का शाप दिया, जिससे गोपराजद्रुमिलकी पत्नी कलावतीके गर्भ से उत्पन्न हो दासी-पुत्र कहलाए। तदनन्तर वैष्णवों की जूठन (सीथ प्रसादी) के पुण्य प्रभाव से ब्रह्मा के पुत्र हुए और नर-नारायण से प्राप्त ज्ञान (नार) का दाता होने के कारण नारद कहलाए नारं ददातीतिनारद:। पांच वर्ष की बाल्यावस्था में सनक, सनन्दनव सनातन द्वारा तत्वज्ञान और सनत्कुमारद्वारा कल्पवृक्ष स्वरूप श्रीकृष्ण-मन्त्र (ॐश्रीं नमोभगवतेरासमण्ऽलेश्वरायश्रीकृष्णायस्वाहा) प्राप्त हुआ तथा सर्पदंशवशमाता की मृत्यु पश्चात गृह त्यागकर निराहारकठोर तप के प्रभाव से भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य झांकी के दर्शन हुए। कल्पान्त में प्रलयकालीनसमुद्र (एकार्णव) में शयन को उद्यत नारायण के हृदयक्षेत्रमें प्रवेश को तत्पर ब्रह्माजीके भीतर श्वास द्वारा प्रविष्ट और एक सहस्त्र चतुर्युगी उपरान्त, सृष्टि-सृजनकाल में उनकी इन्द्रियों से प्रकट हुए। भगवान् द्वारा वैकुण्ठ अथवा योगियों के हृदय में न रहकर मात्र भक्तों के कीर्तन-स्थल पर निवास करने की बात नाहं वसामिवैकुण्ठेयोगिनांहृदयेन वै।मद्भक्तायत्र गायन्तितत्र तिष्ठामिनारद॥सुनकर प्रभु के गुणगान की ओर प्रवृत्त हुए। दक्ष के हर्यश्व नामक दस हजार पुत्र व तदनन्तर शबलाश्व नामक एक हजार पुत्र नारदजीके उपदेश के प्रभाववशप्रजासृष्टिके लक्ष्य से विरत हुए, तब क्रुद्ध दक्ष प्रजापति ने इन्हें वंशपरम्परा उच्छेद का दोषी मान लोक-लोकान्तरों में सदा भटकते रहने व कहीं ठौर न होने का शाप दिया। वे जन्म-मृत्यु से रहित नित्यरूपधारीहैं, जिनका निज इच्छा से आविर्भाव अथवा तिरोभाव संभव है। वे भगवत्प्रेमीपरिव्राजक हैं, जिनका समस्त लोकों में स्वच्छन्द विचरण है। भगवान् के विशेष कृपापात्र व लीला-सहचर हैं। वे तत्त्वज्ञ, नीतिज्ञ, शास्त्रज्ञ, दिव्यस्मृतिवान्,त्रिकालज्ञ ज्योतिषी, वैद्यक-शास्त्र व व्याकरण पण्डित, अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रतधारी,प्राणियों को भगवद्भक्तिकी ओर उन्मुख करने वाले, कल्याणार्थ विवाद भी उत्पन्न कराने वाले परम हितैषी हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार वे भक्ति के द्वादश आचार्यो में प्रमुख हैं। श्रीवृन्दावनधाममें भक्तिदेवीव उनके ज्ञान- वैराग्य पुत्रों के कष्टों से द्रवित हो सनकादिकी आज्ञानुरूपहरिद्वार के निकट आनन्द-घाट पर श्रीमद्भागवत कथा द्वारा ज्ञानयज्ञकर कष्ट-निवृत्ति की। उन्होंने अद्वितीय कलियुग में घर-घर व जन-जन में भक्ति की स्थापना करने की प्रतिज्ञा की है, कलिना सदृश: कोऽपियुगोनास्तिवरानने।तस्िमस्तवांस्थाययिष्यामिगेहेगेहेजने जने॥उनकी निश्चल प्रीतिवशभक्तिदेवीसदा उनके चित्त में निवास करती हैं, अहो नारद! धन्योऽसिप्रीतिस्तेनिश्चलामयि।न कदाचिदंविमुंचानिचित्तेस्थास्यामिसर्वदा॥ |
Sunday, December 28, 2008
भक्तिपथ प्रदर्शक देवर्षि नारद
मानव सेवा के संदेश वाहक स्वामी राम
देव भूमि उत्तरांचल के पौडी जनपद के तोली गांव में सन 1925में जन्मे स्वामी राम के हृदय में अध्यात्म के बीज बचपन से मौजूद थे। बचपन में ही स्वामी जी दीक्षा लेकर अपने गुरु के साथ हिमालय की तरफ निकल गए। उनके गुरुदेव ने स्वामी जी को अनेक यौगिक क्रियाओं में पारंगत किया। स्वामी जी को उनके गुरुदेव द्वारा हिमालय के अन्य योगियों तथा सिद्ध पुरुषों के पास प्राचीन शिक्षा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा। चौबीस वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें मध्य भारत के करवीर पीठ में शंकराचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। स्वामी जी ने हिमालय की गुफाओंमें गहन साधना करने के लिए इस पद का परित्याग कर दिया। साधना को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के पश्चात उनके गुरुदेव ने उन्हें यौगिक अभ्यास पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्याख्यान देने के लिए जापान व पश्चिमी देशों में भेजा। मैनेजर फाउंडेशन टोपिका,केंसास(यूएसए) में स्वामी जी ने हृदयगति, शरीर का तापमान व मस्तिष्क तरंगों जैसी अनैच्छिक दैहिक क्रियाओं को मन के द्वारा नियंत्रित करने की क्षमता का प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन से विश्व भर के चिकित्सक व वैज्ञानिक आश्चर्यचकित थे। स्वामी जी ने अपने योग दर्शन और आध्यात्म के बल पर अमेरिका में हिमालयन इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आफ योग एंड फिलासफी की स्थापना की जो आज भी समूचे विश्व में स्वामी जी के योग दर्शन एवं आध्यात्म का साहित्य उपलब्ध कराने का मुख्य स्त्रोत है। उन्होंने भारतीय योगदर्शन का परिचय पूरी दुनिया से कराया और अनेक देशों में हिमालयन इंस्टीट्यूट की शाखाओं की स्थापना की। संयुक्त राष्ट्र में स्वामी जी का कार्य तेइस वर्ष तक जारी रहा। अमेरिका में स्वामी जी एक योगी, शिक्षक, वैज्ञानिक, दार्शनिक, कवि, मानवतावादी व विश्व प्रेमी के रूप में पहचाने गए। उनके प्रतिरोधात्मकऔषधियां समग्र स्वास्थ्य एवं तनाव प्रबंधन के मॉडल ने पश्चिमी चिकित्सा जगत की मुख्यधारा में स्थान पाया है। जीवन के उद्देश्य के बारे में स्वामी जी कहते थे कि जीवन का उद्देश्य दु:खों एवं कष्टों से मुक्ति पाना है। अपने जीवन काल में स्वामी जी किसी धर्म विशेष का प्रचार न करते हुए संपूर्ण जीवन मानव उत्थान के लिए कार्य करते रहे। स्वामी जी का सिद्धांत है, देवो देवालय प्रोक्त: जीवों देव सनातन अर्थात मनुष्य का शरीर मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघरोंसे ऊंचा है, क्योंकि इस शरीर में निवास करने वाली आत्मा ही देवता है। मनुष्य की पूजा न कर, पूजा स्थलों में जाकर झुकना पाखंड है। ट्रस्ट का मिशन है-स्वास्थ्य सुविधाओं में विकास के एकीकृत एवं मितव्ययी साधनों को विकसित करना जो कि आसपास की गरीब जनता के अनुरूप हो तथा जो देश व विश्व के लिए एक मॉडल के रूप में बन सके। एचआईएचटीकी स्वास्थ्य सुविधाओं चिकित्सा शिक्षा एवं शोध में समग्र नीति अपनाई जाती है जिसमें स्वास्थ्य सुविधाओं की पारम्परिक पद्धतियां पूरक औषधियां तथा आधुनिक तकनीक शामिल हैं। एचआईएचटीनवनिर्मित राज्य उत्तरांचल में स्थित है। उत्तरी भारत के लाखों लोगों के लिए जिन्हें, थोडी अथवा कुछ भी स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध नहीं थी, स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के साहसी विचार ने 1991में एक छोटे से वाह्य रोगी विभाग के साथ आकार लेना आरंभ किया। आज यह एक विश्वस्तरीय स्वास्थ्य नगरी एवं शैक्षिक परिसर है, जिसमें अत्याधुनिक उपकरणों व विशेषज्ञों युक्त एक वृहद अस्पताल समग्र स्वास्थ्य कार्यक्रम, मेडिकल कालेज, नर्सिग स्कूल, ग्रामीण विकास संस्थान तथा कर्मचारियों विद्यार्थियों एवं रोगियों के परिवारों के रहने हेतु आवास व्यवस्था सम्मिलित है। |
संत कबीर-रचा वंचितों का वेद
कबीर भारतीय चिंतन-परंपरा के पुरस्कर्ताइन अर्थो में हैं, क्योंकि वे मृत्यु का सहर्ष स्वागत करते हैं। आत्म, परम-आत्म और अध्यात्म में कबीर का इतना अगाध विश्वास है कि वे दैहिक मृत्यु को भी नगण्य मानते हैं। उनका ऐसा विश्वास इसलिए भी है, क्योंकि दैहिक मृत्यु के बाद पूर्ण एवं परम आत्मा से मिलन संभव होगा : जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद। कब मरिहोंकब पायहुं,पूरन परमानंद॥ बिना मृत्यु के परमात्मा से मिलन संभव नहीं है। यहां मरने का एक अर्थ अहंकार का मरना, दंभ को, मैं पन को मारना भी है। कबीर ने काल और महाकाल के भय से मानव को मुक्त कर जीवन की महत्ता सिद्ध की है। निर्धन, दमित, उपेक्षित, दलित व्यक्ति को भी कबीर धनवान नहीं, बल्कि आत्मवानबनाते हैं और वह स्वयं को धनवानों से भी अधिक धनवान तथा महिमावान समझता है। सामाजिक गैर-बराबरी, जाति-पांति की विषमता से लडने की आंतरिक, वास्तविक क्षमताओं से कबीर व्यक्ति को जोडते हैं। उसमें आत्मा, आत्म-शक्ति जगाते हैं। जीवन के प्रति अगाध विश्वासों से कबीर हमें भर देते हैं, ताकि अपसंस्कृति एवं अमानवीयताके विपरीत व्यक्ति अध्यात्म सत्ता से जुडे और आत्मीय-मानवीय विश्व का सु-नागरिक सिद्ध हो। सच है-परमात्मा ही पूर्ण है। योग-ध्यान-आत्मा द्वारा उससे संयुक्त होकर ही शांति, आनंद और आत्म-तुष्टि का अनुभव किया जा सकता है। यही कारण है कि कबीर उस पूर्ण, परमात्मा से जुडने के मार्ग दिखाते हैं। परमात्मा के पूर्ण होने की वैदिक अवधारणा के आधार पर वे कहते हैं : पूरे सोंपरिचय भया,सब दु:ख मेल्यादूरी। निर्मल कीन्हींआत्मा, ताथैंसदा हुजूरी॥ सब प्रकार की हिंसा, हत्या, दु:ख-क्लेश से मुक्त होने और परमात्मा के हर समय, हर कहीं खुले दर्शन करने का एक ही मार्ग है-आत्मा की निर्मलता। निर्मल आत्मा से परमात्मा तक पहुंचाने का मार्ग दिखाने वाले मसीहा हैं कबीर। कबीर विद्वेषियोंने उन पर कई आक्षेप किए हैं। उन्हें वेद-विरोधी व नारी निंदक तक कहा गया है, जबकि ये दोनों बातें व्यर्थ भ्रमित करने वाली हैं। वेद का अर्थ ज्ञान है, आत्मिक-आध्यात्मिक ज्ञान है, जो वेदनात्मकताएवं संवेदनात्मकताका आधार है। कबीर ज्ञानमार्गीमाने जाते हैं। उनका मार्ग भक्ति व कर्म से अधिक एवं मुखर ज्ञान का मार्ग है। कबीर यदि ज्ञान (वेद) से भी विरोध रखने वाले माने जाएंगे, तब उनके चिंतन का और कौन सा आधार है? कबीर की एक साखी संतों में प्रसिद्ध है। वे कहते हैं : वेद हमारा भेद है, हम वेदन के माहिं। जिन वेदन में हम रहें, वेदौंजानतनाहिं॥ कह सकते हैं कि कबीर ने वंचितों का वेद रचा। नारी और शूद्र्र को वेद पाठ से वंचित कर दिए जाने पर कबीर ने स्वयं अपना वेद रचा, जो कि वंचकों के वेद से भिन्न है और इस अपने वेद में वे लोग स्वयं भी स्थित हैं। उनकी पीडाएं, आकांक्षाएं, आह्लाद-विषाद भी इसमें समाहित हैं। इसी भांति नारी-निंदक मानी जाने वाली साखियोंको विद्वानों ने ठीक से अब तक समझने का प्रयास नहीं किया। जो कुछ पूर्व विद्वानों ने मान लिया, उसी को बडे-बडे विश्वविद्यालयों के स्व-नामधन्य विभागाध्यक्ष तक दोहराते जा रहे हैं। कबीर ग्रंथावली में कामी नर को अंग के अंतर्गत संकलित हैं उक्त साखियां,जो स्पष्ट ही कामी नर को संबोधित हैं, नारी को नहीं। पुरुष सत्तात्मकसमाज के मूल्य-पक्षधर नारी संबंधी कबीर के विचारों को अनदेखा क्यों कर रहे हैं? यही नहीं, वे तो कंचन एवं कामिनी के प्रति कहे गए कबीर के शब्दों को सारी नारी जाति पर आरोपित कर रहे हैं। कामिनी नारी यदि लपटों-भरी आग है, तो कामी नर को उससे बचने की हिदायत कबीर दे रहे हैं, नहीं तो-अन्यत्र साखियोंमें कबीर वीर व सती नारी के प्रति खुले कंठ से पक्षधरता व्यक्त करते हैं। वे इस बात पर भी व्यंग्य करते हैं कि जहां समाज सती नारी को पूरी देह ढकने के लिए उपयुक्त वस्त्र प्रदान नहीं करता, वहीं वेश्या खासा पहनती है। ऐसे में यह प्रमाणित हो जाता है कि सती, साधु, सत्य और ज्ञान के पक्षधर संत कबीर ने ज्ञान को परमात्मा के रूप में स्थापित किया है। |
भगवान शंकर के अंश ऋषि दुर्वासा
ब्रज मण्डल के अंतर्गत प्रमुख बारह वनों में से लोहवनके अंतर्गत यमुना के किनारे मथुरा में दुर्वासाजी का अत्यन्त प्राचीन आश्रम है। दुर्वासासत्ययुग, त्रैताएवं द्वापर तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि हैं। वे महादेव शंकर के अंश से आविर्भूत हुए हैं। कभी-कभी उनमें अकारण ही भयंकर क्रोध भी देखा जाता है। वे सब प्रकार के लौकिक वरदान देने में समर्थ हैं। यह महर्षि दुर्वासाकी सिद्ध तपस्या स्थली एवं तीनों युगों का प्रसिद्ध आश्रम है। भारत के समस्त भागों से लोग इस आश्रम का दर्शन करने और तरह-तरह की लौकिक कामनाओं की पूर्ति करने के लिए आते हैं। महर्षि अत्रि जी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। उनकी पत्नी अनसूयाजी के पातिव्रत धर्म की परीक्षा लेने हेतु ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही पत्िनयों के अनुरोध पर श्री अत्रीऔर अनसूयाजी के चित्रकुटस्थित आश्रम में शिशु रूप में उपस्थित हुए। ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और महेश दुर्वासाके रूप में उपस्थित हुए। बाद में देव पत्नियों के अनुरोध पर अनसूयाजी ने कहा कि इस वर्तमान स्वरूप में वे पुत्रों के रूप में मेरे पास ही रहेंगे। साथ ही अपने पूर्ण स्वरूप में अवस्थितहोकर आप तीनों अपने-अपने धाम में भी विराजमान रहेंगे। यह कथा सतयुग के प्रारम्भ की है। पुराणों और महाभारत में इसका विशद वर्णन है। दुर्वासाजी कुछ बडे हुए, माता-पिता से आदेश लेकर वे अन्न जल का त्याग कर कठोर तपस्या करने लगे। विशेषत:यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुंचे कि उनको बहुत सी योग-सिद्धियां प्राप्त हो गई। अब वे सिद्ध योगी के रूप में विख्यात हो गए। तत्पश्चात् यमुना किनारे इसी स्थल पर उन्होंने एक आश्रम का निर्माण किया और यहीं पर रहकर आवश्यकता के अनुसार बीच-बीच में भ्रमण भी किया। दुर्वासाआश्रम के निकट ही यमुना के दूसरे किनारे पर महाराज अम्बरीष का एक बहुत ही सुन्दर राजभवन था। एक बार राजा निर्जलाएकादशी एवं जागरण के उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे। समस्त क्रियाएं सम्पन्न कर सन्त विप्र आदि भोज के पश्चात् भगवत प्रसाद से पारण करने को थे कि महर्षि दुर्वासाआ गए। महर्षि को देख राजा ने प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया, पर ऋषि यमुना स्नान कर आने की बात कहकर चले गए। पारण काल निकलने जा रहा था। धर्मज्ञ ब्राह्मणों के परामर्श पर श्री चरणामृत ग्रहण कर राजा का पारण करना ही था कि ऋषि उपस्थित हो गए तथा क्रोधित होकर कहने लगे कि तुमने पहले पारण कर मेरा अपमान किया है। भक्त अम्बरीशको जलाने के लिए महर्षि ने अपनी जटा निचोड क्रत्याराक्षसी उत्पन्न की, परन्तु प्रभु भक्त अम्बरीशअडिग खडे रहे। भगवान ने भक्त रक्षार्थचक्र सुदर्शन प्रकट किया और राक्षसी भस्म हुई। दुर्वासाजी चौदह लोकों में रक्षार्थदौडते फिरे। शिवजी की चरण में पहुंचे। शिवजी ने विष्णु के पास भेजा। विष्णु जी ने कहा आपने भक्त का अपराध किया है। अत:यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं, तो भक्त अम्बरीशके निकट ही क्षमा प्रार्थना करें। जब से दुर्वासाजी अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे, तब से महाराज अम्बरीशने भोजन नहीं किया था। उन्होंने दुर्वासाजीके चरण पकड लिए और बडे प्रेम से भोजन कराया। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हुए और आदरपूर्वक राजा से भोजन करने का आग्रह किया। दुर्वासाजी ने संतुष्ट होकर महाराज अम्बरीशके गुणों की प्रशंसा की और आश्रम लौट आए। महाराज अम्बरीशके संसर्ग से महर्षि दुर्वासाका चरित्र बदल गया। अब वे ब्रह्म ज्ञान और अष्टांग योग आदि की अपेक्षा शुद्ध भक्ति मार्ग की ओर झुक गए। महर्षि दुर्वासाजी शंकर जी के अवतार एवं प्रकाश हैं। शंकर जी के ईश्वर होने के कारण ही उनका निवास स्थान ईशापुरके नाम से प्रसिद्ध है। आश्रम का पुनर्निर्माण त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिवेदान्त गोस्वामी जी ने कराया। सम्प्रति व्यवस्था सन्त रास बिहारी दास आश्रम पर रह कर देख रहे हैं। |
तीर्थकर ऋषभदेव की सार्वभौमिकता
जैन परंपरा के अनुसार काल का न आदि है, न अंत। इतिहास का आलोक तो काल के अनंतवेंभाग मात्र को ही आलोकित कर पाता है। काल का जो भाग इतिहास की पकड में नहीं आता, उसे हम प्रागैतिहासिक काल कह देते हैं। ऐसे ही प्रागैतिहासिक काल के एक शलाका पुरुष हैं- ऋषभदेव जिन्हें इतिहास काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता है। किंतु वे आज भी भारत की सम्पूर्ण भारतीयता तथा जन जातीय स्मृतियों में पूर्णत:सुरक्षित हैं। जैन परम्परा के चौबीस तीर्थकरोंमें ये ही ऐसे तीर्थकरहैं, जिनकी पुण्य-स्मृति जैनेतरभारतीय वाड्.मयऔर परंपराओं में भी एक शलाका पुरुष के रूप में विस्तार से सुरक्षित है। मनुष्य के अस्तित्व के लिए रोटी, कपडा, मकान जैसे पदार्थ आवश्यक हैं, किंतु उसकी आंतरिक सम्पन्नता केवल इतने से ही नहीं हो जाती। उसमें अहिंसा, सत्य, संयम, समता, साधना और तप के आध्यात्मिक मूल्य भी जुडने चाहिए। भगवान् ऋषभदेवने भारतीय संस्कृति को जो कुछ दिया है, उसमें असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मो के द्वारा उन्होंने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया वहां अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को भी जगाया। इस प्रकार भारतीय संस्कृति को उनका अवदान एकांगी न होकर सर्वागीण और चतुर्मुखी है। भारतीय संस्कृति के आंतरिक पक्ष को जो योगदान उन्होंने दिया, उसकी चर्चा संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद इन शब्दों में करता है- त्रिधा बद्धोवृषभोरोरवीतिमहादेवोमत्यांआ विवेश॥ इस मन्त्रांशका सीधा शब्दार्थहै-तीन स्थानों से बंधे हुये वृषभ ने बारंबार घोषणा की कि महादेव मनुष्यों में ही प्रविष्ट हैं। यह घोषणा आत्मा को ही परमात्मा बनाने की घोषणा है। आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने के लिए मन, वचन, काय का संयम आवश्यक है। यह त्रिगुप्तिही वृषभ का तीन स्थानों पर संयमित होना है। आत्मा ही परमात्मा है, यह घोषणा भारतीय संस्कृति को उन सेमेटिकधर्मो से अलग करती है, जिन धर्मो में परमात्मा को परमात्मा और जीव को जीव माना गया है तथा यह कहा गया है कि जीव कभी परमात्मा नहीं हो सकता। किंतु भारतीय चिन्तन में जो आत्मा है, वही परमात्मा है- अप्पा सो परमप्पा।ऋषभदेवका यह स्वर इतना बलवान था कि यह केवल जैनोंतक सीमित नहीं रहा, अपितु पूरे भारतीय चिंतन में व्याप्त हो गया। उपनिषदों ने भी घोषणा की- अयम् आत्मा ब्रह्म। वेदान्त ने तो इतना भी कह दिया कि सब शास्त्रों का सार यही है कि जीव ही ब्रह्म है। जीवो ब्रह्मैवनापर:।यदि धर्म दर्शन के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति को गैर-भारतीय संस्कृति से अलग करने वाला व्यावर्त्तकधर्म खोजा जाय तो वह है- आत्मा परमात्मा की एकता और इस तथ्य के अन्वेषण में भगवान् ऋषभदेवप्रभृतशलाका पुरुष का महत्वपूर्ण योगदान है। जैन तीर्थकरऋषभदेवको अपना प्रवर्तक तथा प्रथम तीर्थकरमानकर पूजा करते ही हैं, किंतु भागवत् भी घोषणा करता है कि नाभि का प्रिय करने के लिए विष्णु ने मरूदेवीके गर्भ से वातरशनाब्रह्मचारी ऋषियों को धर्म का उपदेश देने के लिए ऋषभदेवके रूप में जन्म लिया-नाभे: प्रियचिकीर्षया। तदवरोधायने मेरूदेव्यां धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषिणां ऊर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततारा (श्रीमद्भागवत 5/3/20) भागवत् के पांचवें स्कंध के पांचवें अध्याय में उस उपदेश का विस्तार से वर्णन है जिसे ऋषभदेवने दिया था। जीवननिर्वाह हेतु ऋषभदेवने असि, मसि, कृषि तथा शिल्प की शिक्षा भी दी। भारतीय जनता ऋषभदेवके महान उपकारों के प्रति इतनी ज्यादा समर्पित हुई कि कृतज्ञता वश उनके ज्येष्ठ चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष करके गौरव माना भरताद्भारतंवर्षम्।इस बात को इस कृतज्ञ देश ने इतनी बार दुहराया कि इस नामकरण वाली बात को काल्पनिक कहकर ठुकराया नहीं जा सकता। जन-जन की आस्था के केंद्र तीर्थकरऋषभदेवका जन्म चैत्रशुक्लानवमी को अयोध्या में हुआ था तथा माघ कृष्णा चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाशपर्वतसे हुआ था। आचार्य जिनसेनके आदिपुराणमें तीर्थकरऋषभदेवके जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है। भारतीय संस्कृति के इतिहास में ऋषभदेवही एक ऐसे आराध्यदेवहैं जिसे वैदिक संस्कृति तथा भ्रमण संस्कृति में समान महत्व प्राप्त है। |
भारतीय संस्कृति के पुरोधा आद्य शंकराचार्य
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तीर्थकर पार्श्वनाथ का देशना स्थल
राजघराने, धर्म इतिहास, पुरातत्व, कला, संस्कृति एवं साहित्य के लिए ग्वालियर शुरू से ही विख्यात है। जैन धर्मावलम्बियों के लिए यह स्थल अत्यंत पूजनीय इसलिए भी है क्योंकि जैन धर्म के तेईसवेंतीर्थकरभगवान पार्श्वनाथकई बार विहार करते हुए यहां पधारे थे और अपनी दिव्य ध्वनि से उन्होंने यहां उपदेश भी दिया था। इस बात का प्रमाण साहित्य में तो मिलता ही है, साथ ही ग्वालियर की शान गोपाचलपर्वत पर उत्कीर्ण लगभग सात सौ वर्ष प्राचीन बयालीस फुट ऊंची तथा तीस फुट चौडी पद्मासन मुद्रा में तीर्थकरभगवान पार्श्वनाथकी प्रतिमा मानो वर्तमान में भी भगवान के समवशरणऔर दिव्य देशना का आनन्द दे रही प्रतीत होती है। गोपाचलके गौरवपूर्ण इतिहास में यह भी अंकित है कि अंतिम श्रुतकेवलीआचार्य भद्रबाहुगिरनारजाते समय इस स्थान पर पधारे थे तथा उनका भी उपदेश यहां कई दिनों तक हुआ। इसके साथ ही अपभ्रंशभाषा के महाकवि रइधूजैन की यह साहित्य साधना स्थली भी रही। इन सबके साथ यहां पर्वत पर उत्कीर्ण जैन तीर्थकरोंकी हजारों खड्गासनतथा पद्मासन मूर्तियों के विशाल समूहों के कारण यह जन-जन की आस्था का केंद्र बना हुआ है। मुगल शासन के समय संवत् 1557में इन मूर्तियों को नष्ट करने का प्रयास किया गया, जिसके फलस्वरूप आज कई विशाल प्रतिमाओं के धड तथा अन्य अंग शरीर से अलग हो चुके हैं। आतताइयों ने तीर्थकरपार्श्वनाथकी सबसे ऊंची पद्मासन प्रतिमा को भी तोडने का प्रयास किया था, किंतु दैव शक्तियों से रक्षित उस अतिशयकारीप्रतिमा को वे छू भी नहीं पाए, जो भी आक्रमण करता वह अंधा हो जाता था। इसी प्रकार अन्य कई ऋद्धि-सिद्धियों की प्रसिद्धि के कारण भी यह क्षेत्र ग्वालियर वासियों के लिए तथा संपूर्ण भारत के जैन धर्मावलम्बियों के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है। वर्तमान में गोपाचलजैन धर्म का एक प्रमुख गढ है। रइधूकवि ने अगणि अणपडिमको लक्खईअपभ्रंशमें कहकर यहां की जैनमूर्तियोंको अगणितबताया है। वर्तमान में यहां उपलब्ध तीर्थकरोंकी मूर्तियों की संख्या 1500के लगभग है, जो छह इंच से लेकर सत्तावन फुट तक की हैं। यहां की सबसे विशाल खड्गासनमूर्ति भगवान आदिनाथकी है, जो बावन गजाके नाम से प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना पंद्रहवींशती में तोमरवंशीराजाओं के काल में हुई थी। यह उत्तुंग प्रतिमा ग्वालियर किले में है तथा यह किले की वर्गीकृत मूर्तियों में उरवाहीदरवाजे की मूर्ति समूह के अन्तर्गत मानी जाती है। उरवाहीघाटी की दक्षिणी ओर प्रमुख बाईस तीर्थकरोंकी मूर्तियां हैं। यहीं पर क्रम संख्या 22में बाइसवेंतीर्थकरनेमिनाथकी विशाल मनोहारी प्रतिमा भी है। दक्षिणपूर्व समूह में स्थित एक पत्थर की बावडी बहुत प्रसिद्ध है, यहीं पार्श्वनाथकी चमत्कारी प्रतिमा है। किले के प्राचीरसे बाहरी हिस्से में एक ओर प्राकृतिक बाबडी है, जिसमें प्रति समय शीतल एवं मीठा जल निरन्तर किसी अज्ञात स्त्रोत से बहता रहता है। दाहिनी दिशा में दुर्ग के बाहर पहाडी की बेजान चट्टानों को तराशकर विशाल पद्मासन तथा खड्गासनतीर्थकरप्रतिमाएं गुफाओंके अंदर पहाडी में बनायी गई हैं। कुल 26गुफाओंमें महावीर, पार्श्वनाथ,शांतिनाथ,आदिनाथ,पुष्पदन्त,नेमिनाथतथा पद्मप्रभुतीर्थकरोंकी विशाल दर्जनों प्रतिमाएं हमारे गौरवपूर्ण इतिहास का दिग्दर्शन करवाती हैं। सभी मूर्तियों तथा गुफाओंमें इतिहास का बखान करते शिलालेख हैं। गोपाचलपर्वत का त्रिशलागिरीसमूह काफी महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध है। यह श्रृंखला चौबीस तीर्थकरभगवानों को समर्पित है। इन शैल गुहा मंदिरों में क्रमबद्ध रूप से प्रथम बार तीर्थकरके पांचों कल्याणकोंको पत्थर पर उत्कीर्ण किया गया है। यहां प्रथम समूह में चन्द्रप्रभ,आदिनाथतथा पार्श्वनाथकी क्षतिग्रस्त प्रतिमाएं हैं। प्रथम गुहा में तीर्थकरमहावीर की माता त्रिशलाकी लगभग 8फीट लम्बी निद्रामग्न प्रतिमा है, जिसके आसपास परिचारिकाएं बैठी हैं। पृष्ठभाग पर तीर्थकरकी प्रतिमा है। यह गर्भकल्याणककी सूचक है। ऐसी बेजोड त्रिशलामाता की मूर्ति विश्व में कहीं नहीं है। इस प्रतिमा के चमत्कार की कई कथाएं प्रसिद्ध हैं। आज भी जिस स्त्री को संतानोत्पत्ति नहीं होती है वे माता-त्रिशला की प्रतिमा पर आकर जल चढाती हैं तथा मन्नत मांगती हैं। उनकी मनोकामना पूर्ण होने के कारण यह स्थल अत्यंत श्रद्धा का केंद्र बन गया है। इसी प्रकार जन्म, तप, ज्ञान तथा मोक्ष कल्याणकको भी चट्टानों पर जीवन्त तराशा गया है |
शस्त्र और शास्त्र के महारथी परशुराम
हमहितुम्हहिसरिबरिकस नाथा/ कहहुन कहां चरन कहंमाथा / राम मात्र लघु नाम हमारा / परसुसहित बड नाम तोहारा..।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जिनका सादर नमन करते हों, उन शस्त्रधारी और शास्त्रज्ञ भगवान परशुराम की महिमा का वर्णन शब्दों की सीमा में संभव नहीं। वे योग, वेद और नीति में निष्णात थे, तंत्रकर्मतथा ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी पारंगत थे, यानी जीवन और अध्यात्म की हर विधा के महारथी। विष्णु के छठे अवतार परशुराम पशुपति का तप कर परशु धारी बने और उन्होंने शस्त्र का प्रयोग कुप्रवृत्तियोंका दमन करने के लिए किया। कुछ लोग कहते हैं, परशुराम ने जाति विशेष का सदैव विरोध किया, लेकिन यह तार्किक सत्य नहीं। तथ्य तो यह है कि संहार और निर्माण, दोनों में कुशल परशुराम जाति नहीं, अपितु अवगुण विरोधी थे। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में जो खल दंड करहुंनहिंतोरा/भ्रष्ट होय श्रुति मारगमोरा की परंपरा का ही उन्होंने भलीभांति पालन किया। परशुराम ने ऋषियों के सम्मान की पुनस्र्थापना के लिए शस्त्र उठाए। उनका उद्देश्य जाति विशेष का विनाश करना नहीं था। यदि ऐसा होता, तो वे केवल हैहयवंश को समूल नष्ट न करते। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम की वास्तविकता जानने के बाद प्रभु का अभिनंदन किया, तो कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन करने में भी परशुराम ने संकोच नहीं किया। कर्ण को श्राप उन्होंने इसलिए नहीं दिया कि कुंतीपुत्रकिसी विशिष्ट जाति से संबंध रखते हैं, वरन् असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। कौशल्यापुत्र राम और देवकीनंदनकृष्ण से अगाध स्नेह रखने वाले परशुराम ने गंगापुत्र देवव्रत (भीष्म पितामह) को न सिर्फ युद्धकला में प्रशिक्षित किया, बल्कि यह कहकर आशीष भी दी कि संसार में किसी गुरु को ऐसा शिष्य पुन:कभी प्राप्त न होगा! पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को ही त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था। इसी दिन, यानी वैशाख शुक्ल तृतीया को सरस्वती नदी के तट पर निवास करने वाले ऋषि जमदग्नितथा माता रेणुका के घर प्रदोषकालमें जन्मे थे परशुराम। परशुराम के क्रोध की चर्चा बार-बार होती है, लेकिन आक्रोश के कारणों की खोज बहुत कम हुई है। परशुराम ने प्रतिकार स्वरूप हैहयवंशके कार्तवीर्यअर्जुन की वंश-बेल का 21बार विनाश किया था, क्योंकि कामधेनु गाय का हरण करने के लिए अर्जुनपुत्रोंने ऋषि जमदग्निकी हत्या कर दी थी। भगवान दत्तात्रेयकी कृपा से हजार भुजाएं प्राप्त करने वाला कार्तवीर्यअर्जुन दंभ से लबालब भरा था। उसके लिए विप्रवधजैसे खेल था, जिसका दंड परशुराम ने उसे दिया। ग्रंथों में यह भी वर्णित है कि सहस्त्रबाहुने परशुराम के कुल का 21बार अपमान किया था। परशुराम के लिए पिता की हत्या का समाचार प्रलयातीतथा। उनके लिए ऋषि जमदग्निकेवल पिता ही नहीं, ईश्वर भी थे। इतिहास प्रमाण है कि परशुराम ने गंधर्वो के राजा चित्ररथपर आकर्षित हुई मां रेणुका का पिता का आदेश मिलने पर वध कर दिया था। जमदग्निने पितृ आज्ञा का विरोध कर रहे पुत्रों रुक्मवान,सुखेण,वसु तथा विश्वानसको जड होने का श्राप दिया, लेकिन बाद में परशुराम के अनुरोध पर उन्होंने दयावशपत्नी और पुत्रों को पुनर्जीवित कर दिया। पशुपति भक्त परशुराम ने श्रीराम पर भी क्रोध इसलिए व्यक्त किया, क्योंकि अयोध्या नरेश ने शिव धनुष तोड दिया था। वाल्मीकि रामायण के बालकांडमें संदर्भ है कि भगवान परशुराम ने वैष्णव धनुष पर शर-संधान करने के लिए श्रीराम को कहा। जब वे इसमें सफल हुए, तब परशुराम ने भी समझ लिया कि विष्णु ने श्रीरामस्वरूपधारण किया है। परशुराम के क्रोध का सामना तो गणपति को भी करना पडा था। मंगलमूर्तिने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया था, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार किया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंतकहलाए। अश्वत्थामा,हनुमान और विभीषण की भांति प्रभुस्वरूपपरशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है कि वे चिरजीवी हैं। श्रीमद्भागवत महापुराणमें वर्णित है, अश्वत्थामा बलिव्र्यासोहनूमांश्चविभीषण:/कृप: परशुरामश्चसप्तैतेचिरजीविन:। ऐसे समय में, जब शास्त्र की महिमा को पुन:मान्यता दिलाने की आवश्यकता है और शस्त्र का निरर्थक प्रयोग बढ चला है, भगवान परशुराम से प्रेरणा लेकर संतुलन बनाने की आवश्यकता है, ताकि मानव मात्र का कल्याण हो सके और मानवता त्राहि-त्राहि न करे। |
युग प्रवर्तक: हरिवंश महाप्रभु
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गौड़ीय संप्रदाय के स्तंभ जीव गोस्वामी
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सच्चे अर्थो में देवर्षि हैं नारद
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ज्ञान और स्वाभिमान के संवाहक परशुराम
शक्ति-संघर्ष का परिणाम अक्सर सुखद नहीं होता। इस तरह समाज की दो धाराओं में द्वंद्व की स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं, लेकिन क्षत्रिय के लिए उपयुक्त कर्म और ब्राह्मणोचितज्ञान में संतुलन के अनुपम उदाहरण परशुराम का सत्तासीन राजा कार्तवीर्यअर्जुन से संघर्ष आवश्यक ही कहा जाएगा। इसके परिणामस्वरूप समाज में विचलन की स्थिति समाप्त हो गई। राजा को शक्ति का दंभ था और ऋषि को ज्ञान पर स्वाभिमान तथा संघर्ष के औचित्य का भान। हैहयवंशके कार्तवीर्यअर्जुन की वंश-बेल 21बार नष्ट करने के पीछे यूं तो परशुराम का प्रतिकार ही प्रमुख था, किंतु ऐसा कर उन्होंने यह बात जरूर स्थापित कर दी कि ज्ञान और तप का सम्मान सबको करना होगा, क्योंकि ये भारतीय संस्कृति के आधार-बिंदु हैं। इतिहास में वर्णित है कि कार्तवीर्यअर्जुन के पुत्रों ने बलपूर्वक कामधेनु गाय प्राप्त करने के लिए ऋषि जमदग्निका वध कर दिया था। कार्तवीर्यको भगवान दत्तात्रेयकी कृपा से हजार भुजाओं का वरदान मिल गया था। दंभ से भरपूर कार्तवीर्यअर्जुन विप्र समाज को हेय समझता था। ब्राह्मणों, विद्वत्जनोंऔर ऋषियों को तिरष्कृतकरना और उनका वध कर देना उसके लिए जैसे कोई खेल था। परशुराम ने इसी का दंड राजा को दिया। ग्रंथों में वर्णित है कि सहस्रबाहुकार्तवीर्यअर्जुन ने भृगुकुल का 21बार मान-हरण किया और प्रतिकार स्वरूप परशुधारीऋषि ने उसके वंश का 21बार संहार भी किया। वैसे, प्रतिशोध का कारण केवल अपमान नहीं था, अर्जुन पुत्रों ने परशुराम के पिता का वध कर दिया, तो ऋषि क्रोधाग्नि से घिर गए। पिता को वे ईश्वर से भी बडा मानते थे। गंधर्व नरेश चित्ररथके प्रति आकृष्ट हुईं मां रेणुका का भी परशुराम ने इसीलिए वध किया था, क्योंकि पिता की ऐसी इच्छा थी। फिर पिता से माता को पुनर्जीवित करने का आशीर्वाद भी मांगा। मान्यता है कि वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को ही त्रेतायुग की शुरुआत हुई थी। यही अवसर था, जब सरस्वती नदी के तट पर बसने वाले ऋषि जमदग्नितथा उनकी पत्नी रेणुका के घर प्रदोषकालमें योग, वेद और नीति में पारंगत, तंत्रकर्मके साधक, ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालक परशुराम का जन्म हुआ था। परशुराम साधारण ऋषि नहीं। पौैराणिक ग्रंथों में बताया गया है कि वे विष्णु के छठे अवतार थे। उन्होंने पशुपति शंकर की निरंतर साधना की। आशीर्वाद स्वरूप शिव ने उन्हें अपना परशु दिया और उसे धारण करने के कारण ही ऋषि को परशुराम, यानी परशु युक्त राम कहा गया। मानव जीवन के सूक्ष्म दर्शन का ज्ञान और आध्यात्मिक उच्चताके शिखर पर स्थापना..यह संतुलन परशुराम ही कर सकते थे, तभी तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी कहते हैं, हमहि तुम्हहिसरिबरिकस नाथा/ कहहुन कहां चरन कहंमाथा / राम मात्र लघु नाम हमारा / परसुसहित बड नाम तोहारा..।जिन्हें प्रभु नमन करते हों, उनकी महानता के बारे में कहना ही क्या? परशुराम और कार्तवीर्यमें संघर्ष के कारण भारतीय ज्ञान और मीमांसा के प्रति लोगों की आस्था तो बढी, लेकिन कहीं न कहीं दो वर्गो और जातियों में कटुता में भी वृद्धि हुई थी। इसी संदर्भ में श्रीराम की परशुराम से निकटता प्रशंसनीय है, क्योंकि उन्होंने ज्ञान प्रसार और समाज-रक्षा के लिए अस्त्रों के संचालन का दायित्व पुन:अलग-अलग जातियों में जाने देने के लिए परशुराम को प्रेरित किया। कुप्रवृत्तियोंका दमन करने के लिए शस्त्र का प्रयोग करने वाले परशुराम संहार और निर्माण, दोनों में कुशल थे। उन्होंने जाति का नहीं, अवगुण का ही सदैव विरोध किया। जो खल दंड करहुंनहिंतोरा / भ्रष्ट होय श्रुति मारगमोरा (रामचरित मानस, तुलसीदास) की लीक पर चलते हुए ज्ञान और स्वाभिमान के संवाहक संत परशुराम ने ऋषियों के सम्मान की रक्षा की। उन्होंने जातिगत विद्वेष को स्थान कभी नहीं दिया। जनक, दशरथ आदि राजाओं का समुचित सम्मान करने वाले परशुराम ने सीता स्वयंवर में श्रीराम की वास्तविकता जानने के बाद प्रभु के प्रति समर्पण भी किया था। श्रीमद्भागवत महापुराणमें बताया गया है, अश्वत्थामा बलिव्र्यासोहनूमांश्चविभीषण: / कृप:परशुरामश्चसप्तैतेचिरजीविन:।स्पष्ट है कि परशुराम चिरजीवी हैं। अश्वत्थामा,हनुमान और विभीषण की भांति प्रभुस्वरूपपरशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है। आज जबकि शास्त्रगतज्ञान, सांस्कृतिक उच्चताकी स्थापना पुन:आवश्यक हो चुकी है, तब भगवान परशुराम से प्रेरणा लेनी ही होगी। |
शांतिपुंज गुरु अर्जुन देव जी
गुरु अर्जुन देव जी शहीदों के सरताज एवं शान्तिपुंजहैं। आध्यात्मिक जगत में गुरु जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है। गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है। ग्रंथ साहिब का संपादन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604में किया। ग्रंथ साहिब की संपादन कला अद्वितीय है, जिसमें गुरु जी की विद्वत्ता झलकती है। उन्होंने रागों के आधार पर ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझबूझ का ही प्रमाण है कि ग्रंथ साहिब में 36महान वाणीकारोंकी वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई। अर्जुन देव जी गुरु रामदास के सुपुत्र थे। उनकी माता का नाम बीवी भानी जी था। गोइंदवालसाहिब में उनका जन्म 15अप्रैल 1563को हुआ और विवाह 1579ईसवी में। सिख संस्कृति को गुरु जी ने घर-घर तक पहुंचाने के लिए अथाह प्रयत्न किए। गुरु दरबार की सही निर्माण व्यवस्था में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1590ई. में तरनतारनके सरोवर की पक्की व्यवस्था भी उनके प्रयास से हुई। ग्रंथ साहिब के संपादन को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत की कि ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है, लेकिन बाद में जब अकबर को वाणी की महानता का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढाके माध्यम से 51मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया। गुरु जी शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी थे। वे अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे, जो दिन-रात संगत सेवा में लगे रहते थे। उनके मन में सभी धर्मो के प्रति अथाह स्नेह था। मानव-कल्याण के लिए उन्होंने आजीवन शुभ कार्य किए। अकबर के देहांत के बाद जहांगीर दिल्ली का शासक बना। वह कट्टर-पंथी था। अपने धर्म के अलावा, उसे और कोई धर्म पसंद नहीं था। गुरु जी के धार्मिक और सामाजिक कार्य भी उसे सुखद नहीं लगते थे। कुछ इतिहासकारों का यह भी मत है कि शहजादा खुसरोको शरण देने के कारण जहांगीर गुरु जी से नाराज था। 15मई, 1606ई. को बादशाह ने गुरु जी को परिवार सहित पकडने का हुक्म जारी किया। तुज्ाके-जहांगीरी के अनुसार उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर घरबार लूट लिया गया। इस बाद गुरु जी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया। तपता तवा उनके शीतल स्वभाव के सामने सुखदाईबन गया। तपती रेत ने भी उनकी निष्ठा भंग नहीं की। गुरु जी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की- तेरा कीआमीठा लागे॥ हरिनामुपदारथनानक मांगे॥ गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित वाणी ने भी संतप्त मानवता को शांति का संदेश दिया। सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी है। करोडों प्राणी दिन चढते ही सुखमनीसाहिब का पाठ कर शांति प्राप्त करते हैं। सुखमनीसाहिब में चौबीस अष्टपदी हैं। सुखमनीसाहिब राग गाउडीमें रची गई रचना है। यह रचना सूत्रात्मक शैली की है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दुख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है, जिनकी प्राप्ति कर मानव अपार सुखोंकी उपलब्धि कर सकता है। सुखमनीशब्द अपने-आप में अर्थ-भरपूर है। मन को सुख देने वाली वाणी या फिर सुखों की मणि इत्यादि। सुखमनीसुख अमृत प्रभु नामु। भगत जनांके मन बिसरामु॥ सुखमनीसाहिब सुख का आनंद देने वाली वाणी है। सुखमनीसाहिब मानसिक तनाव की अवस्था का शुद्धीकरण भी करती है। प्रस्तुत रचना की भाषा भावानुकूलहै। सरल ब्रजभाषा एवं शैली से जुडी हुई यह रचना गुरु अर्जुन देव जी की महान पोथी है। गुरु अर्जुन देव जी की वाणी की मूल- संवेदना प्रेमाभक्तिसे जुडी है। गुरमति-विचारधाराके प्रचार-प्रसार में गुरु जी की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। गुरु जी ने पंजाबी भाषा साहित्य एवं संस्कृति को जो अनुपम देन दी, उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। इस अवदान का पहला प्रमाण ग्रंथ साहिब का संपादन है। इस तरह जहां एक ओर लगभग 600वर्षो की सांस्कृतिक गरिमा को पुन:सृजित किया गया, वहीं दूसरी ओर नवीन जीवन-मूल्यों की जो स्थापना हुई, उसी के कारण पंजाब में नवीन-युग का सूत्रपात भी हुआ। गुरु जी के शहीदी पर्व पर उन्हें याद करने का अर्थ है, उस धर्म- निरपेक्ष विचारधारा को मान्यता देना, जिसका समर्थन गुरु जी ने आत्म-बलिदान देकर किया था। उन्होंने संदेश दिया था कि महान जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने को सदैव तैयार रहना चाहिए, तभी कौम और राष्ट्र अपने गौरव के साथ जीवंत रह सकते हैं। |
समाज सुधारक देशभक्त गुरुनानक देव जी
गुरु नानक देव जी ने एक ऐसे विकट समय में जन्म लिया जब भारत में कोई केंद्रीय संगठित शक्ति नहीं थी। विदेशी आक्रमणकारी देशवासियों का मानमर्दनकर देश को लूटने में लगे थे। धर्म के नाम पर अंधविश्वास और कर्मकांड का बोलबाला था। मतमतांतरोंऔर विदेशी संस्कृति का हमला इस देश की संस्कृति पर हो रहा था। ऐसे कठिन समय में हुए गुरु जी के प्रकाश के बारे में भाई गुरुदास जी ने लिखा है। सतगुरु नानक प्रगटिया,मिटी धुंध जग चानणहोआ,ज्यूं कर सूरज निकलया,तारे छुपे अंधेर पलोआ गुरु नानक देव जी के जीवन के अनेक पहलू हैं। वे जन सामान्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करने वाले महान दार्शनिक, विचारक थे। अपनी सुमधुर सरल वाणी से जनमानस के हृदय को झंकृत कर देने वाले महान संत कवि भी। गुरु जी के अध्यात्मिक विचारक और संत कवि रूप की चर्चा बहुत हुई है, परंतु उनका एक और रूप है, जिसे उनके व्यक्तित्व का अभिन्न रूप माना जा सकता है। इस रूप में वे क्रांतिकारी कवि की तरह बाबर जैसे अत्याचारीशासक की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो जाति वैमनस्य और धार्मिक रंजिशों में फंसे समाज को सही दिशा दिखाते हैं। गुरु जी के समय हिंदुओं को बलात् धर्म परिवर्तन के लिए तत्कालीन कट्टरपंथी शासक मजबूर कर रहे थे। हिंदु धर्म के अंदर भी वर्णभेद, ऊंच-नीच का जातिगत भेदभाव चरम पर था। गुरु जी ने यह सब देखा। धर्म, समाज एवं देश की अधोगति को उन्होंने अनुभव किया। निरंतर छिन्न-भिन्न होते जा रहे सामाजिक ढांचे को अपने हृदयस्पर्शी उपदेशों से उन्होंने पुन:एकता के सूत्र में बांध दिया। उन्होंने लोगों को बेहद सरल भाषा में समझाया सभी इंसान एक दूसरे के भाई है। ईश्वर सबका साझा पिता है। फिर एक पिता की संतान होने के बावजूद हम ऊंच-नीच कैसे हो सकते है। अव्वल अल्लाह नूर उपाया,कुदरत के सब बंदे एक नूर तेसब जग उपज्या,कौन भले को मंदे। उल्लेखनीय बात यह है कि गुरु जी ने इन उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाकर स्वयं एक आदर्श बन सामाजिक सद्भाव की मिसाल कायम की। उन्होंने लंगर की परंपरा चलाई। जहां कथित अछूत लोग जिनके सामीप्य से कथित उच्च जाति के लोग बचने की कोशिश करते थे, उन्हीं ऊंच जाति वालों के साथ बैठकर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे। आज भी सभी गुरुद्वारों में गुरु जी द्वारा शुरू की गई यह लंगर परंपरा कायम है। लंगर में बिना किसी भेदभाव के संगत सेवा करती है। इस जातिगत वैमनस्य को खत्म करने के लिए गुरू जी ने संगत परंपरा शुरू की। जहां हर जाति के लोग साथ-साथ जुटते थे, प्रभु आराधना किया करते थे। गुरु जी ने अपनी यात्राओं के दौरान हर उस व्यक्ति का आतिथ्य स्वीकार किया, उसके यहां भोजन किया, जो भी उनका प्रेमपूर्वक स्वागत करता था। कथित निम्न जाति के समझे जाने वाले मरदाना को उन्होंने एक अभिन्न अंश की तरह हमेशा अपने साथ रखा और उसे भाई कहकर संबोधित किया। इस प्रकार तत्कालीन सामाजिक परिवेश में गुरु जी ने इस क्रांतिकारी कदमों से एक ऐसे भाईचारे को नींव रखी जिसके लिए धर्म-जाति का भेदभाव बेमानी था। आध्यात्मिक विचारक, संत होने के साथ-साथ गुरु जी एक महान देश भक्त भी थे। वे सच्चे अर्थो में एक क्रांतिकारी युग पुरुष थे। उस समय त्याग, वैराग्य और जंगलों में जाकर भजन करना मोक्ष प्राप्ति के लिए जरूरी समझा जाता था। ऋषि मुनि लोग समाज की मुख्य धारा से कटकर जंगल में जाकर तपस्या करते थे। इस प्रकार बुराईयों से ग्रस्त समाज को सुधारने में उनका कोई योगदान नहीं था। यहां पर गुरु जी ने आगे आकर इन एकांतवासियों को लताडा। उन्हें समझाया कि एक ऐसे समय में जब बाबर जैसे लुटेरे देश को लूट खसोट रहे हैं, औरतों की बेइज्जती हो रही है, ऐसे समय में अपने परिचितों को अकेले छोडकर जंगलों में तपस्या करके वे देश-धर्म और संस्कृति के प्रति कैसी वफादारी निभा रहे है। गुरुनानक देव जी ने उनके स्वाभिमान को सब हराम जेता कीछखाये का उलाहना देकर राष्ट्रसेवा के लिए प्रेरित किया। उन्होंने शासन प्रशासन द्वारा किए जा रहे अत्याचार का करुण वर्णन अपनी वाणी में कर निर्भयता का परिचय दिया। राजे सिंह मुकदमकुते,जाइजगाइनबैठे सुत्तेचाकर तट दा पाइयनघाउ,रत-पितु कुतहिचरिजाहूंइस प्रकार गुरु जी ने जुल्म, अत्याचार का विस्तार सहित वर्णन कर जागरूकता, चेतना कायम की। जहां मधुर सारगुहीउपदेशों से लोगों के हृदय में दया, ईश्वरीय प्रेम, सहिष्णुता के बीजे बोए वहीं क्रान्तिकारी उपदेशों से गुलामी और अत्याचार सहने को अपनी नियति मान चुके लोगों के सोए स्वाभिमान को जगाया। धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड, अंधविश्वास और कर्मकाण्डों का गुरु जी ने सख्त विरोध किया। आधुनिक समय में भी गुरुनानक देव जी के उपदेश उतने ही प्रासंगिक हैं। हमें समाज में फैले वैमनस्य, कुरीतियों आडम्बरों के विरुद्ध तो संघर्ष करना ही है, साथ ही साम्प्रदायिकता,जातिवाद के विष से सचेत रहकर हर हालत में आपसी एकता, भाई-बंधुत्व भी बनाये रखना है। |
Friday, December 26, 2008
महर्षि दयानन्द के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूलचिंतन करने की तीव्र इच्छा, भारतीय जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निंदा करने की परवाह किए बिना भारत के हिंदू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था। फाल्गुणकृष्ण संवत् 1895में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड आया। उन्हें नयाबोधहुआ। उन्होंने प्रण किया कि मैं सच्चे शिव की खोज करूंगा। वे घर से निकल पडे और यात्रा करते हुआ वह गुरु विरजानन्दके पास पहुंचे। गुरुवरने उन्हें पाणिनीव्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा सम्पूर्ण वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा-विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्गार करो,मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही मेरी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने आशीर्वाद दिया, ईश्वर तेरे पुरुषार्थ को सफल करे। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी-मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है। ऋषिकृतग्रंथों में नहीं। वेद प्रमाण हैं। इस कसौटी को हाथ से न छोडना। महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर पाखंड खण्डिनीपताका फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। कलकत्ता में बाबू केशवचंद्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के वे संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनने तथा हिंदी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था-मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932(सन् 1975)को गिरगांवबम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणीमात्रके कल्याण के लिए हैं- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वास और रूढियों-बुराइयोंको दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। वे संन्यासी योद्धा कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूलवर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धारके पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आंदोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को ब्रह्मांड का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवादके समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूलथे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र हैं तथा फल भोगने में परतंत्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने दिल्ली दरबार के समय 1878में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमरग्रंथसत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णो तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षणरथे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रांति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा संबंधी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूलहै। महर्षि दयानंद समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों के आर्यावर्तमें राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति,मिथ्याभाषावादि,कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्षतथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने न्याय की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रंथों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृतिऔर स्वदेशोन्नतिका वह अग्रदूत सन् 1883में दीपावली के दिन इस असार संसार से चला गया तथा अपने पीछे छोड गया एक सिद्धांत, कृष्णवंतोंविश्वमार्यम्सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ उनके अन्तिम शब्द थे-प्रभु तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो। |