Sunday, December 28, 2008

तीर्थकर पा‌र्श्वनाथ का देशना स्थल


राजघराने, धर्म इतिहास, पुरातत्व, कला, संस्कृति एवं साहित्य के लिए ग्वालियर शुरू से ही विख्यात है। जैन धर्मावलम्बियों के लिए यह स्थल अत्यंत पूजनीय इसलिए भी है क्योंकि जैन धर्म के तेईसवेंतीर्थकरभगवान पा‌र्श्वनाथकई बार विहार करते हुए यहां पधारे थे और अपनी दिव्य ध्वनि से उन्होंने यहां उपदेश भी दिया था। इस बात का प्रमाण साहित्य में तो मिलता ही है, साथ ही ग्वालियर की शान गोपाचलपर्वत पर उत्कीर्ण लगभग सात सौ वर्ष प्राचीन बयालीस फुट ऊंची तथा तीस फुट चौडी पद्मासन मुद्रा में तीर्थकरभगवान पा‌र्श्वनाथकी प्रतिमा मानो वर्तमान में भी भगवान के समवशरणऔर दिव्य देशना का आनन्द दे रही प्रतीत होती है। गोपाचलके गौरवपूर्ण इतिहास में यह भी अंकित है कि अंतिम श्रुतकेवलीआचार्य भद्रबाहुगिरनारजाते समय इस स्थान पर पधारे थे तथा उनका भी उपदेश यहां कई दिनों तक हुआ। इसके साथ ही अपभ्रंशभाषा के महाकवि रइधूजैन की यह साहित्य साधना स्थली भी रही। इन सबके साथ यहां पर्वत पर उत्कीर्ण जैन तीर्थकरोंकी हजारों खड्गासनतथा पद्मासन मूर्तियों के विशाल समूहों के कारण यह जन-जन की आस्था का केंद्र बना हुआ है।

मुगल शासन के समय संवत् 1557में इन मूर्तियों को नष्ट करने का प्रयास किया गया, जिसके फलस्वरूप आज कई विशाल प्रतिमाओं के धड तथा अन्य अंग शरीर से अलग हो चुके हैं। आतताइयों ने तीर्थकरपा‌र्श्वनाथकी सबसे ऊंची पद्मासन प्रतिमा को भी तोडने का प्रयास किया था, किंतु दैव शक्तियों से रक्षित उस अतिशयकारीप्रतिमा को वे छू भी नहीं पाए, जो भी आक्रमण करता वह अंधा हो जाता था। इसी प्रकार अन्य कई ऋद्धि-सिद्धियों की प्रसिद्धि के कारण भी यह क्षेत्र ग्वालियर वासियों के लिए तथा संपूर्ण भारत के जैन धर्मावलम्बियों के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है।

वर्तमान में गोपाचलजैन धर्म का एक प्रमुख गढ है। रइधूकवि ने अगणि अणपडिमको लक्खईअपभ्रंशमें कहकर यहां की जैनमूर्तियोंको अगणितबताया है। वर्तमान में यहां उपलब्ध तीर्थकरोंकी मूर्तियों की संख्या 1500के लगभग है, जो छह इंच से लेकर सत्तावन फुट तक की हैं। यहां की सबसे विशाल खड्गासनमूर्ति भगवान आदिनाथकी है, जो बावन गजाके नाम से प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना पंद्रहवींशती में तोमरवंशीराजाओं के काल में हुई थी। यह उत्तुंग प्रतिमा ग्वालियर किले में है तथा यह किले की वर्गीकृत मूर्तियों में उरवाहीदरवाजे की मूर्ति समूह के अन्तर्गत मानी जाती है। उरवाहीघाटी की दक्षिणी ओर प्रमुख बाईस तीर्थकरोंकी मूर्तियां हैं। यहीं पर क्रम संख्या 22में बाइसवेंतीर्थकरनेमिनाथकी विशाल मनोहारी प्रतिमा भी है। दक्षिणपूर्व समूह में स्थित एक पत्थर की बावडी बहुत प्रसिद्ध है, यहीं पा‌र्श्वनाथकी चमत्कारी प्रतिमा है। किले के प्राचीरसे बाहरी हिस्से में एक ओर प्राकृतिक बाबडी है, जिसमें प्रति समय शीतल एवं मीठा जल निरन्तर किसी अज्ञात स्त्रोत से बहता रहता है। दाहिनी दिशा में दुर्ग के बाहर पहाडी की बेजान चट्टानों को तराशकर विशाल पद्मासन तथा खड्गासनतीर्थकरप्रतिमाएं गुफाओंके अंदर पहाडी में बनायी गई हैं। कुल 26गुफाओंमें महावीर, पा‌र्श्वनाथ,शांतिनाथ,आदिनाथ,पुष्पदन्त,नेमिनाथतथा पद्मप्रभुतीर्थकरोंकी विशाल दर्जनों प्रतिमाएं हमारे गौरवपूर्ण इतिहास का दिग्दर्शन करवाती हैं। सभी मूर्तियों तथा गुफाओंमें इतिहास का बखान करते शिलालेख हैं।

गोपाचलपर्वत का त्रिशलागिरीसमूह काफी महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध है। यह श्रृंखला चौबीस तीर्थकरभगवानों को समर्पित है। इन शैल गुहा मंदिरों में क्रमबद्ध रूप से प्रथम बार तीर्थकरके पांचों कल्याणकोंको पत्थर पर उत्कीर्ण किया गया है। यहां प्रथम समूह में चन्द्रप्रभ,आदिनाथतथा पा‌र्श्वनाथकी क्षतिग्रस्त प्रतिमाएं हैं। प्रथम गुहा में तीर्थकरमहावीर की माता त्रिशलाकी लगभग 8फीट लम्बी निद्रामग्न प्रतिमा है, जिसके आसपास परिचारिकाएं बैठी हैं। पृष्ठभाग पर तीर्थकरकी प्रतिमा है। यह गर्भकल्याणककी सूचक है। ऐसी बेजोड त्रिशलामाता की मूर्ति विश्व में कहीं नहीं है। इस प्रतिमा के चमत्कार की कई कथाएं प्रसिद्ध हैं।

आज भी जिस स्त्री को संतानोत्पत्ति नहीं होती है वे माता-त्रिशला की प्रतिमा पर आकर जल चढाती हैं तथा मन्नत मांगती हैं। उनकी मनोकामना पूर्ण होने के कारण यह स्थल अत्यंत श्रद्धा का केंद्र बन गया है। इसी प्रकार जन्म, तप, ज्ञान तथा मोक्ष कल्याणकको भी चट्टानों पर जीवन्त तराशा

गया है

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