अहो नारद धन्योऽसिविरक्तानांशिरोमणि:। सदा श्रीकृष्णदा-सानामग्रणीर्योगभास्कर:॥ (श्रीमद्भागवत माहात्म्य) सनकादिमुनीश्वरोंद्वारा वर्णित विरक्त शिरोमणि, श्रीकृष्णदासोंमें अग्रगण्य व भक्तियोगके भास्कर देवर्षिनारद, सृष्टिकर्ता साक्षात् ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण में उल्लेख है- ब्रह्माजीके कण्ठदेश(नरद) से उत्पत्तिवशनारद नामकरण हुआ। सृष्टि-विस्तार हेतु नारद की अवज्ञा से कुपित ब्रह्माजीने उन्हें ज्ञान लुप्त होने व पचास कामिनियोंका पति होने का शाप दिया। निरपराध नारद ने भक्ति में बाधक ब्रह्माजीको तीन कल्प व्यतीत होने तक तीनों लोकों में अपूज्य रहने का शाप दिया। गन्धर्व-योनि पाकर अधिक पूज्य होने के कारण अभिशप्त नारद का गुरु वशिष्ठ द्वारा नामकरण हुआ- उपबर्हण। उन्होंने दीर्घकाल तक चित्ररथगन्धर्व की पचास कन्याओं के साथ विहार किया। रम्भाअप्सरा का नृत्य देख सम्मोहित होने के कारण क्रुद्ध ब्रह्माजीने उन्हें शूद्र-योनि प्राप्त होने का शाप दिया, जिससे गोपराजद्रुमिलकी पत्नी कलावतीके गर्भ से उत्पन्न हो दासी-पुत्र कहलाए। तदनन्तर वैष्णवों की जूठन (सीथ प्रसादी) के पुण्य प्रभाव से ब्रह्मा के पुत्र हुए और नर-नारायण से प्राप्त ज्ञान (नार) का दाता होने के कारण नारद कहलाए नारं ददातीतिनारद:। पांच वर्ष की बाल्यावस्था में सनक, सनन्दनव सनातन द्वारा तत्वज्ञान और सनत्कुमारद्वारा कल्पवृक्ष स्वरूप श्रीकृष्ण-मन्त्र (ॐश्रीं नमोभगवतेरासमण्ऽलेश्वरायश्रीकृष्णायस्वाहा) प्राप्त हुआ तथा सर्पदंशवशमाता की मृत्यु पश्चात गृह त्यागकर निराहारकठोर तप के प्रभाव से भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य झांकी के दर्शन हुए। कल्पान्त में प्रलयकालीनसमुद्र (एकार्णव) में शयन को उद्यत नारायण के हृदयक्षेत्रमें प्रवेश को तत्पर ब्रह्माजीके भीतर श्वास द्वारा प्रविष्ट और एक सहस्त्र चतुर्युगी उपरान्त, सृष्टि-सृजनकाल में उनकी इन्द्रियों से प्रकट हुए। भगवान् द्वारा वैकुण्ठ अथवा योगियों के हृदय में न रहकर मात्र भक्तों के कीर्तन-स्थल पर निवास करने की बात नाहं वसामिवैकुण्ठेयोगिनांहृदयेन वै।मद्भक्तायत्र गायन्तितत्र तिष्ठामिनारद॥सुनकर प्रभु के गुणगान की ओर प्रवृत्त हुए। दक्ष के हर्यश्व नामक दस हजार पुत्र व तदनन्तर शबलाश्व नामक एक हजार पुत्र नारदजीके उपदेश के प्रभाववशप्रजासृष्टिके लक्ष्य से विरत हुए, तब क्रुद्ध दक्ष प्रजापति ने इन्हें वंशपरम्परा उच्छेद का दोषी मान लोक-लोकान्तरों में सदा भटकते रहने व कहीं ठौर न होने का शाप दिया। वे जन्म-मृत्यु से रहित नित्यरूपधारीहैं, जिनका निज इच्छा से आविर्भाव अथवा तिरोभाव संभव है। वे भगवत्प्रेमीपरिव्राजक हैं, जिनका समस्त लोकों में स्वच्छन्द विचरण है। भगवान् के विशेष कृपापात्र व लीला-सहचर हैं। वे तत्त्वज्ञ, नीतिज्ञ, शास्त्रज्ञ, दिव्यस्मृतिवान्,त्रिकालज्ञ ज्योतिषी, वैद्यक-शास्त्र व व्याकरण पण्डित, अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रतधारी,प्राणियों को भगवद्भक्तिकी ओर उन्मुख करने वाले, कल्याणार्थ विवाद भी उत्पन्न कराने वाले परम हितैषी हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार वे भक्ति के द्वादश आचार्यो में प्रमुख हैं। श्रीवृन्दावनधाममें भक्तिदेवीव उनके ज्ञान- वैराग्य पुत्रों के कष्टों से द्रवित हो सनकादिकी आज्ञानुरूपहरिद्वार के निकट आनन्द-घाट पर श्रीमद्भागवत कथा द्वारा ज्ञानयज्ञकर कष्ट-निवृत्ति की। उन्होंने अद्वितीय कलियुग में घर-घर व जन-जन में भक्ति की स्थापना करने की प्रतिज्ञा की है, कलिना सदृश: कोऽपियुगोनास्तिवरानने।तस्िमस्तवांस्थाययिष्यामिगेहेगेहेजने जने॥उनकी निश्चल प्रीतिवशभक्तिदेवीसदा उनके चित्त में निवास करती हैं, अहो नारद! धन्योऽसिप्रीतिस्तेनिश्चलामयि।न कदाचिदंविमुंचानिचित्तेस्थास्यामिसर्वदा॥ |
Sunday, December 28, 2008
भक्तिपथ प्रदर्शक देवर्षि नारद
मानव सेवा के संदेश वाहक स्वामी राम
देव भूमि उत्तरांचल के पौडी जनपद के तोली गांव में सन 1925में जन्मे स्वामी राम के हृदय में अध्यात्म के बीज बचपन से मौजूद थे। बचपन में ही स्वामी जी दीक्षा लेकर अपने गुरु के साथ हिमालय की तरफ निकल गए। उनके गुरुदेव ने स्वामी जी को अनेक यौगिक क्रियाओं में पारंगत किया। स्वामी जी को उनके गुरुदेव द्वारा हिमालय के अन्य योगियों तथा सिद्ध पुरुषों के पास प्राचीन शिक्षा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा। चौबीस वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें मध्य भारत के करवीर पीठ में शंकराचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। स्वामी जी ने हिमालय की गुफाओंमें गहन साधना करने के लिए इस पद का परित्याग कर दिया। साधना को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के पश्चात उनके गुरुदेव ने उन्हें यौगिक अभ्यास पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्याख्यान देने के लिए जापान व पश्चिमी देशों में भेजा। मैनेजर फाउंडेशन टोपिका,केंसास(यूएसए) में स्वामी जी ने हृदयगति, शरीर का तापमान व मस्तिष्क तरंगों जैसी अनैच्छिक दैहिक क्रियाओं को मन के द्वारा नियंत्रित करने की क्षमता का प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन से विश्व भर के चिकित्सक व वैज्ञानिक आश्चर्यचकित थे। स्वामी जी ने अपने योग दर्शन और आध्यात्म के बल पर अमेरिका में हिमालयन इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आफ योग एंड फिलासफी की स्थापना की जो आज भी समूचे विश्व में स्वामी जी के योग दर्शन एवं आध्यात्म का साहित्य उपलब्ध कराने का मुख्य स्त्रोत है। उन्होंने भारतीय योगदर्शन का परिचय पूरी दुनिया से कराया और अनेक देशों में हिमालयन इंस्टीट्यूट की शाखाओं की स्थापना की। संयुक्त राष्ट्र में स्वामी जी का कार्य तेइस वर्ष तक जारी रहा। अमेरिका में स्वामी जी एक योगी, शिक्षक, वैज्ञानिक, दार्शनिक, कवि, मानवतावादी व विश्व प्रेमी के रूप में पहचाने गए। उनके प्रतिरोधात्मकऔषधियां समग्र स्वास्थ्य एवं तनाव प्रबंधन के मॉडल ने पश्चिमी चिकित्सा जगत की मुख्यधारा में स्थान पाया है। जीवन के उद्देश्य के बारे में स्वामी जी कहते थे कि जीवन का उद्देश्य दु:खों एवं कष्टों से मुक्ति पाना है। अपने जीवन काल में स्वामी जी किसी धर्म विशेष का प्रचार न करते हुए संपूर्ण जीवन मानव उत्थान के लिए कार्य करते रहे। स्वामी जी का सिद्धांत है, देवो देवालय प्रोक्त: जीवों देव सनातन अर्थात मनुष्य का शरीर मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघरोंसे ऊंचा है, क्योंकि इस शरीर में निवास करने वाली आत्मा ही देवता है। मनुष्य की पूजा न कर, पूजा स्थलों में जाकर झुकना पाखंड है। ट्रस्ट का मिशन है-स्वास्थ्य सुविधाओं में विकास के एकीकृत एवं मितव्ययी साधनों को विकसित करना जो कि आसपास की गरीब जनता के अनुरूप हो तथा जो देश व विश्व के लिए एक मॉडल के रूप में बन सके। एचआईएचटीकी स्वास्थ्य सुविधाओं चिकित्सा शिक्षा एवं शोध में समग्र नीति अपनाई जाती है जिसमें स्वास्थ्य सुविधाओं की पारम्परिक पद्धतियां पूरक औषधियां तथा आधुनिक तकनीक शामिल हैं। एचआईएचटीनवनिर्मित राज्य उत्तरांचल में स्थित है। उत्तरी भारत के लाखों लोगों के लिए जिन्हें, थोडी अथवा कुछ भी स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध नहीं थी, स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के साहसी विचार ने 1991में एक छोटे से वाह्य रोगी विभाग के साथ आकार लेना आरंभ किया। आज यह एक विश्वस्तरीय स्वास्थ्य नगरी एवं शैक्षिक परिसर है, जिसमें अत्याधुनिक उपकरणों व विशेषज्ञों युक्त एक वृहद अस्पताल समग्र स्वास्थ्य कार्यक्रम, मेडिकल कालेज, नर्सिग स्कूल, ग्रामीण विकास संस्थान तथा कर्मचारियों विद्यार्थियों एवं रोगियों के परिवारों के रहने हेतु आवास व्यवस्था सम्मिलित है। |
संत कबीर-रचा वंचितों का वेद
कबीर भारतीय चिंतन-परंपरा के पुरस्कर्ताइन अर्थो में हैं, क्योंकि वे मृत्यु का सहर्ष स्वागत करते हैं। आत्म, परम-आत्म और अध्यात्म में कबीर का इतना अगाध विश्वास है कि वे दैहिक मृत्यु को भी नगण्य मानते हैं। उनका ऐसा विश्वास इसलिए भी है, क्योंकि दैहिक मृत्यु के बाद पूर्ण एवं परम आत्मा से मिलन संभव होगा : जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद। कब मरिहोंकब पायहुं,पूरन परमानंद॥ बिना मृत्यु के परमात्मा से मिलन संभव नहीं है। यहां मरने का एक अर्थ अहंकार का मरना, दंभ को, मैं पन को मारना भी है। कबीर ने काल और महाकाल के भय से मानव को मुक्त कर जीवन की महत्ता सिद्ध की है। निर्धन, दमित, उपेक्षित, दलित व्यक्ति को भी कबीर धनवान नहीं, बल्कि आत्मवानबनाते हैं और वह स्वयं को धनवानों से भी अधिक धनवान तथा महिमावान समझता है। सामाजिक गैर-बराबरी, जाति-पांति की विषमता से लडने की आंतरिक, वास्तविक क्षमताओं से कबीर व्यक्ति को जोडते हैं। उसमें आत्मा, आत्म-शक्ति जगाते हैं। जीवन के प्रति अगाध विश्वासों से कबीर हमें भर देते हैं, ताकि अपसंस्कृति एवं अमानवीयताके विपरीत व्यक्ति अध्यात्म सत्ता से जुडे और आत्मीय-मानवीय विश्व का सु-नागरिक सिद्ध हो। सच है-परमात्मा ही पूर्ण है। योग-ध्यान-आत्मा द्वारा उससे संयुक्त होकर ही शांति, आनंद और आत्म-तुष्टि का अनुभव किया जा सकता है। यही कारण है कि कबीर उस पूर्ण, परमात्मा से जुडने के मार्ग दिखाते हैं। परमात्मा के पूर्ण होने की वैदिक अवधारणा के आधार पर वे कहते हैं : पूरे सोंपरिचय भया,सब दु:ख मेल्यादूरी। निर्मल कीन्हींआत्मा, ताथैंसदा हुजूरी॥ सब प्रकार की हिंसा, हत्या, दु:ख-क्लेश से मुक्त होने और परमात्मा के हर समय, हर कहीं खुले दर्शन करने का एक ही मार्ग है-आत्मा की निर्मलता। निर्मल आत्मा से परमात्मा तक पहुंचाने का मार्ग दिखाने वाले मसीहा हैं कबीर। कबीर विद्वेषियोंने उन पर कई आक्षेप किए हैं। उन्हें वेद-विरोधी व नारी निंदक तक कहा गया है, जबकि ये दोनों बातें व्यर्थ भ्रमित करने वाली हैं। वेद का अर्थ ज्ञान है, आत्मिक-आध्यात्मिक ज्ञान है, जो वेदनात्मकताएवं संवेदनात्मकताका आधार है। कबीर ज्ञानमार्गीमाने जाते हैं। उनका मार्ग भक्ति व कर्म से अधिक एवं मुखर ज्ञान का मार्ग है। कबीर यदि ज्ञान (वेद) से भी विरोध रखने वाले माने जाएंगे, तब उनके चिंतन का और कौन सा आधार है? कबीर की एक साखी संतों में प्रसिद्ध है। वे कहते हैं : वेद हमारा भेद है, हम वेदन के माहिं। जिन वेदन में हम रहें, वेदौंजानतनाहिं॥ कह सकते हैं कि कबीर ने वंचितों का वेद रचा। नारी और शूद्र्र को वेद पाठ से वंचित कर दिए जाने पर कबीर ने स्वयं अपना वेद रचा, जो कि वंचकों के वेद से भिन्न है और इस अपने वेद में वे लोग स्वयं भी स्थित हैं। उनकी पीडाएं, आकांक्षाएं, आह्लाद-विषाद भी इसमें समाहित हैं। इसी भांति नारी-निंदक मानी जाने वाली साखियोंको विद्वानों ने ठीक से अब तक समझने का प्रयास नहीं किया। जो कुछ पूर्व विद्वानों ने मान लिया, उसी को बडे-बडे विश्वविद्यालयों के स्व-नामधन्य विभागाध्यक्ष तक दोहराते जा रहे हैं। कबीर ग्रंथावली में कामी नर को अंग के अंतर्गत संकलित हैं उक्त साखियां,जो स्पष्ट ही कामी नर को संबोधित हैं, नारी को नहीं। पुरुष सत्तात्मकसमाज के मूल्य-पक्षधर नारी संबंधी कबीर के विचारों को अनदेखा क्यों कर रहे हैं? यही नहीं, वे तो कंचन एवं कामिनी के प्रति कहे गए कबीर के शब्दों को सारी नारी जाति पर आरोपित कर रहे हैं। कामिनी नारी यदि लपटों-भरी आग है, तो कामी नर को उससे बचने की हिदायत कबीर दे रहे हैं, नहीं तो-अन्यत्र साखियोंमें कबीर वीर व सती नारी के प्रति खुले कंठ से पक्षधरता व्यक्त करते हैं। वे इस बात पर भी व्यंग्य करते हैं कि जहां समाज सती नारी को पूरी देह ढकने के लिए उपयुक्त वस्त्र प्रदान नहीं करता, वहीं वेश्या खासा पहनती है। ऐसे में यह प्रमाणित हो जाता है कि सती, साधु, सत्य और ज्ञान के पक्षधर संत कबीर ने ज्ञान को परमात्मा के रूप में स्थापित किया है। |
भगवान शंकर के अंश ऋषि दुर्वासा
ब्रज मण्डल के अंतर्गत प्रमुख बारह वनों में से लोहवनके अंतर्गत यमुना के किनारे मथुरा में दुर्वासाजी का अत्यन्त प्राचीन आश्रम है। दुर्वासासत्ययुग, त्रैताएवं द्वापर तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि हैं। वे महादेव शंकर के अंश से आविर्भूत हुए हैं। कभी-कभी उनमें अकारण ही भयंकर क्रोध भी देखा जाता है। वे सब प्रकार के लौकिक वरदान देने में समर्थ हैं। यह महर्षि दुर्वासाकी सिद्ध तपस्या स्थली एवं तीनों युगों का प्रसिद्ध आश्रम है। भारत के समस्त भागों से लोग इस आश्रम का दर्शन करने और तरह-तरह की लौकिक कामनाओं की पूर्ति करने के लिए आते हैं। महर्षि अत्रि जी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। उनकी पत्नी अनसूयाजी के पातिव्रत धर्म की परीक्षा लेने हेतु ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही पत्िनयों के अनुरोध पर श्री अत्रीऔर अनसूयाजी के चित्रकुटस्थित आश्रम में शिशु रूप में उपस्थित हुए। ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और महेश दुर्वासाके रूप में उपस्थित हुए। बाद में देव पत्नियों के अनुरोध पर अनसूयाजी ने कहा कि इस वर्तमान स्वरूप में वे पुत्रों के रूप में मेरे पास ही रहेंगे। साथ ही अपने पूर्ण स्वरूप में अवस्थितहोकर आप तीनों अपने-अपने धाम में भी विराजमान रहेंगे। यह कथा सतयुग के प्रारम्भ की है। पुराणों और महाभारत में इसका विशद वर्णन है। दुर्वासाजी कुछ बडे हुए, माता-पिता से आदेश लेकर वे अन्न जल का त्याग कर कठोर तपस्या करने लगे। विशेषत:यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुंचे कि उनको बहुत सी योग-सिद्धियां प्राप्त हो गई। अब वे सिद्ध योगी के रूप में विख्यात हो गए। तत्पश्चात् यमुना किनारे इसी स्थल पर उन्होंने एक आश्रम का निर्माण किया और यहीं पर रहकर आवश्यकता के अनुसार बीच-बीच में भ्रमण भी किया। दुर्वासाआश्रम के निकट ही यमुना के दूसरे किनारे पर महाराज अम्बरीष का एक बहुत ही सुन्दर राजभवन था। एक बार राजा निर्जलाएकादशी एवं जागरण के उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे। समस्त क्रियाएं सम्पन्न कर सन्त विप्र आदि भोज के पश्चात् भगवत प्रसाद से पारण करने को थे कि महर्षि दुर्वासाआ गए। महर्षि को देख राजा ने प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया, पर ऋषि यमुना स्नान कर आने की बात कहकर चले गए। पारण काल निकलने जा रहा था। धर्मज्ञ ब्राह्मणों के परामर्श पर श्री चरणामृत ग्रहण कर राजा का पारण करना ही था कि ऋषि उपस्थित हो गए तथा क्रोधित होकर कहने लगे कि तुमने पहले पारण कर मेरा अपमान किया है। भक्त अम्बरीशको जलाने के लिए महर्षि ने अपनी जटा निचोड क्रत्याराक्षसी उत्पन्न की, परन्तु प्रभु भक्त अम्बरीशअडिग खडे रहे। भगवान ने भक्त रक्षार्थचक्र सुदर्शन प्रकट किया और राक्षसी भस्म हुई। दुर्वासाजी चौदह लोकों में रक्षार्थदौडते फिरे। शिवजी की चरण में पहुंचे। शिवजी ने विष्णु के पास भेजा। विष्णु जी ने कहा आपने भक्त का अपराध किया है। अत:यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं, तो भक्त अम्बरीशके निकट ही क्षमा प्रार्थना करें। जब से दुर्वासाजी अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे, तब से महाराज अम्बरीशने भोजन नहीं किया था। उन्होंने दुर्वासाजीके चरण पकड लिए और बडे प्रेम से भोजन कराया। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हुए और आदरपूर्वक राजा से भोजन करने का आग्रह किया। दुर्वासाजी ने संतुष्ट होकर महाराज अम्बरीशके गुणों की प्रशंसा की और आश्रम लौट आए। महाराज अम्बरीशके संसर्ग से महर्षि दुर्वासाका चरित्र बदल गया। अब वे ब्रह्म ज्ञान और अष्टांग योग आदि की अपेक्षा शुद्ध भक्ति मार्ग की ओर झुक गए। महर्षि दुर्वासाजी शंकर जी के अवतार एवं प्रकाश हैं। शंकर जी के ईश्वर होने के कारण ही उनका निवास स्थान ईशापुरके नाम से प्रसिद्ध है। आश्रम का पुनर्निर्माण त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिवेदान्त गोस्वामी जी ने कराया। सम्प्रति व्यवस्था सन्त रास बिहारी दास आश्रम पर रह कर देख रहे हैं। |
तीर्थकर ऋषभदेव की सार्वभौमिकता
जैन परंपरा के अनुसार काल का न आदि है, न अंत। इतिहास का आलोक तो काल के अनंतवेंभाग मात्र को ही आलोकित कर पाता है। काल का जो भाग इतिहास की पकड में नहीं आता, उसे हम प्रागैतिहासिक काल कह देते हैं। ऐसे ही प्रागैतिहासिक काल के एक शलाका पुरुष हैं- ऋषभदेव जिन्हें इतिहास काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता है। किंतु वे आज भी भारत की सम्पूर्ण भारतीयता तथा जन जातीय स्मृतियों में पूर्णत:सुरक्षित हैं। जैन परम्परा के चौबीस तीर्थकरोंमें ये ही ऐसे तीर्थकरहैं, जिनकी पुण्य-स्मृति जैनेतरभारतीय वाड्.मयऔर परंपराओं में भी एक शलाका पुरुष के रूप में विस्तार से सुरक्षित है। मनुष्य के अस्तित्व के लिए रोटी, कपडा, मकान जैसे पदार्थ आवश्यक हैं, किंतु उसकी आंतरिक सम्पन्नता केवल इतने से ही नहीं हो जाती। उसमें अहिंसा, सत्य, संयम, समता, साधना और तप के आध्यात्मिक मूल्य भी जुडने चाहिए। भगवान् ऋषभदेवने भारतीय संस्कृति को जो कुछ दिया है, उसमें असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मो के द्वारा उन्होंने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया वहां अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को भी जगाया। इस प्रकार भारतीय संस्कृति को उनका अवदान एकांगी न होकर सर्वागीण और चतुर्मुखी है। भारतीय संस्कृति के आंतरिक पक्ष को जो योगदान उन्होंने दिया, उसकी चर्चा संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद इन शब्दों में करता है- त्रिधा बद्धोवृषभोरोरवीतिमहादेवोमत्यांआ विवेश॥ इस मन्त्रांशका सीधा शब्दार्थहै-तीन स्थानों से बंधे हुये वृषभ ने बारंबार घोषणा की कि महादेव मनुष्यों में ही प्रविष्ट हैं। यह घोषणा आत्मा को ही परमात्मा बनाने की घोषणा है। आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने के लिए मन, वचन, काय का संयम आवश्यक है। यह त्रिगुप्तिही वृषभ का तीन स्थानों पर संयमित होना है। आत्मा ही परमात्मा है, यह घोषणा भारतीय संस्कृति को उन सेमेटिकधर्मो से अलग करती है, जिन धर्मो में परमात्मा को परमात्मा और जीव को जीव माना गया है तथा यह कहा गया है कि जीव कभी परमात्मा नहीं हो सकता। किंतु भारतीय चिन्तन में जो आत्मा है, वही परमात्मा है- अप्पा सो परमप्पा।ऋषभदेवका यह स्वर इतना बलवान था कि यह केवल जैनोंतक सीमित नहीं रहा, अपितु पूरे भारतीय चिंतन में व्याप्त हो गया। उपनिषदों ने भी घोषणा की- अयम् आत्मा ब्रह्म। वेदान्त ने तो इतना भी कह दिया कि सब शास्त्रों का सार यही है कि जीव ही ब्रह्म है। जीवो ब्रह्मैवनापर:।यदि धर्म दर्शन के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति को गैर-भारतीय संस्कृति से अलग करने वाला व्यावर्त्तकधर्म खोजा जाय तो वह है- आत्मा परमात्मा की एकता और इस तथ्य के अन्वेषण में भगवान् ऋषभदेवप्रभृतशलाका पुरुष का महत्वपूर्ण योगदान है। जैन तीर्थकरऋषभदेवको अपना प्रवर्तक तथा प्रथम तीर्थकरमानकर पूजा करते ही हैं, किंतु भागवत् भी घोषणा करता है कि नाभि का प्रिय करने के लिए विष्णु ने मरूदेवीके गर्भ से वातरशनाब्रह्मचारी ऋषियों को धर्म का उपदेश देने के लिए ऋषभदेवके रूप में जन्म लिया-नाभे: प्रियचिकीर्षया। तदवरोधायने मेरूदेव्यां धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषिणां ऊर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततारा (श्रीमद्भागवत 5/3/20) भागवत् के पांचवें स्कंध के पांचवें अध्याय में उस उपदेश का विस्तार से वर्णन है जिसे ऋषभदेवने दिया था। जीवननिर्वाह हेतु ऋषभदेवने असि, मसि, कृषि तथा शिल्प की शिक्षा भी दी। भारतीय जनता ऋषभदेवके महान उपकारों के प्रति इतनी ज्यादा समर्पित हुई कि कृतज्ञता वश उनके ज्येष्ठ चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष करके गौरव माना भरताद्भारतंवर्षम्।इस बात को इस कृतज्ञ देश ने इतनी बार दुहराया कि इस नामकरण वाली बात को काल्पनिक कहकर ठुकराया नहीं जा सकता। जन-जन की आस्था के केंद्र तीर्थकरऋषभदेवका जन्म चैत्रशुक्लानवमी को अयोध्या में हुआ था तथा माघ कृष्णा चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाशपर्वतसे हुआ था। आचार्य जिनसेनके आदिपुराणमें तीर्थकरऋषभदेवके जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है। भारतीय संस्कृति के इतिहास में ऋषभदेवही एक ऐसे आराध्यदेवहैं जिसे वैदिक संस्कृति तथा भ्रमण संस्कृति में समान महत्व प्राप्त है। |
भारतीय संस्कृति के पुरोधा आद्य शंकराचार्य
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तीर्थकर पार्श्वनाथ का देशना स्थल
राजघराने, धर्म इतिहास, पुरातत्व, कला, संस्कृति एवं साहित्य के लिए ग्वालियर शुरू से ही विख्यात है। जैन धर्मावलम्बियों के लिए यह स्थल अत्यंत पूजनीय इसलिए भी है क्योंकि जैन धर्म के तेईसवेंतीर्थकरभगवान पार्श्वनाथकई बार विहार करते हुए यहां पधारे थे और अपनी दिव्य ध्वनि से उन्होंने यहां उपदेश भी दिया था। इस बात का प्रमाण साहित्य में तो मिलता ही है, साथ ही ग्वालियर की शान गोपाचलपर्वत पर उत्कीर्ण लगभग सात सौ वर्ष प्राचीन बयालीस फुट ऊंची तथा तीस फुट चौडी पद्मासन मुद्रा में तीर्थकरभगवान पार्श्वनाथकी प्रतिमा मानो वर्तमान में भी भगवान के समवशरणऔर दिव्य देशना का आनन्द दे रही प्रतीत होती है। गोपाचलके गौरवपूर्ण इतिहास में यह भी अंकित है कि अंतिम श्रुतकेवलीआचार्य भद्रबाहुगिरनारजाते समय इस स्थान पर पधारे थे तथा उनका भी उपदेश यहां कई दिनों तक हुआ। इसके साथ ही अपभ्रंशभाषा के महाकवि रइधूजैन की यह साहित्य साधना स्थली भी रही। इन सबके साथ यहां पर्वत पर उत्कीर्ण जैन तीर्थकरोंकी हजारों खड्गासनतथा पद्मासन मूर्तियों के विशाल समूहों के कारण यह जन-जन की आस्था का केंद्र बना हुआ है। मुगल शासन के समय संवत् 1557में इन मूर्तियों को नष्ट करने का प्रयास किया गया, जिसके फलस्वरूप आज कई विशाल प्रतिमाओं के धड तथा अन्य अंग शरीर से अलग हो चुके हैं। आतताइयों ने तीर्थकरपार्श्वनाथकी सबसे ऊंची पद्मासन प्रतिमा को भी तोडने का प्रयास किया था, किंतु दैव शक्तियों से रक्षित उस अतिशयकारीप्रतिमा को वे छू भी नहीं पाए, जो भी आक्रमण करता वह अंधा हो जाता था। इसी प्रकार अन्य कई ऋद्धि-सिद्धियों की प्रसिद्धि के कारण भी यह क्षेत्र ग्वालियर वासियों के लिए तथा संपूर्ण भारत के जैन धर्मावलम्बियों के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है। वर्तमान में गोपाचलजैन धर्म का एक प्रमुख गढ है। रइधूकवि ने अगणि अणपडिमको लक्खईअपभ्रंशमें कहकर यहां की जैनमूर्तियोंको अगणितबताया है। वर्तमान में यहां उपलब्ध तीर्थकरोंकी मूर्तियों की संख्या 1500के लगभग है, जो छह इंच से लेकर सत्तावन फुट तक की हैं। यहां की सबसे विशाल खड्गासनमूर्ति भगवान आदिनाथकी है, जो बावन गजाके नाम से प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना पंद्रहवींशती में तोमरवंशीराजाओं के काल में हुई थी। यह उत्तुंग प्रतिमा ग्वालियर किले में है तथा यह किले की वर्गीकृत मूर्तियों में उरवाहीदरवाजे की मूर्ति समूह के अन्तर्गत मानी जाती है। उरवाहीघाटी की दक्षिणी ओर प्रमुख बाईस तीर्थकरोंकी मूर्तियां हैं। यहीं पर क्रम संख्या 22में बाइसवेंतीर्थकरनेमिनाथकी विशाल मनोहारी प्रतिमा भी है। दक्षिणपूर्व समूह में स्थित एक पत्थर की बावडी बहुत प्रसिद्ध है, यहीं पार्श्वनाथकी चमत्कारी प्रतिमा है। किले के प्राचीरसे बाहरी हिस्से में एक ओर प्राकृतिक बाबडी है, जिसमें प्रति समय शीतल एवं मीठा जल निरन्तर किसी अज्ञात स्त्रोत से बहता रहता है। दाहिनी दिशा में दुर्ग के बाहर पहाडी की बेजान चट्टानों को तराशकर विशाल पद्मासन तथा खड्गासनतीर्थकरप्रतिमाएं गुफाओंके अंदर पहाडी में बनायी गई हैं। कुल 26गुफाओंमें महावीर, पार्श्वनाथ,शांतिनाथ,आदिनाथ,पुष्पदन्त,नेमिनाथतथा पद्मप्रभुतीर्थकरोंकी विशाल दर्जनों प्रतिमाएं हमारे गौरवपूर्ण इतिहास का दिग्दर्शन करवाती हैं। सभी मूर्तियों तथा गुफाओंमें इतिहास का बखान करते शिलालेख हैं। गोपाचलपर्वत का त्रिशलागिरीसमूह काफी महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध है। यह श्रृंखला चौबीस तीर्थकरभगवानों को समर्पित है। इन शैल गुहा मंदिरों में क्रमबद्ध रूप से प्रथम बार तीर्थकरके पांचों कल्याणकोंको पत्थर पर उत्कीर्ण किया गया है। यहां प्रथम समूह में चन्द्रप्रभ,आदिनाथतथा पार्श्वनाथकी क्षतिग्रस्त प्रतिमाएं हैं। प्रथम गुहा में तीर्थकरमहावीर की माता त्रिशलाकी लगभग 8फीट लम्बी निद्रामग्न प्रतिमा है, जिसके आसपास परिचारिकाएं बैठी हैं। पृष्ठभाग पर तीर्थकरकी प्रतिमा है। यह गर्भकल्याणककी सूचक है। ऐसी बेजोड त्रिशलामाता की मूर्ति विश्व में कहीं नहीं है। इस प्रतिमा के चमत्कार की कई कथाएं प्रसिद्ध हैं। आज भी जिस स्त्री को संतानोत्पत्ति नहीं होती है वे माता-त्रिशला की प्रतिमा पर आकर जल चढाती हैं तथा मन्नत मांगती हैं। उनकी मनोकामना पूर्ण होने के कारण यह स्थल अत्यंत श्रद्धा का केंद्र बन गया है। इसी प्रकार जन्म, तप, ज्ञान तथा मोक्ष कल्याणकको भी चट्टानों पर जीवन्त तराशा गया है |