Friday, December 26, 2008

पुष्टिमार्गके प्रणेताश्रीवल्लभाचार्यजी


भक्तिकालीनसगुणधाराकी कृष्णभक्तिशाखा के आधारस्तंभएवं पुष्टिमार्गके प्रणेताश्रीवल्लभाचार्यजी का प्रादुर्भाव संवत् 1535,वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाडग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्रीलक्ष्मणभट्टजी की पत्नी इलम्मागारूके गर्भ से काशी के समीप हुआ। उन्हें वैश्वानरावतार[अग्नि का अवतार] कहा गया है। वे वेदशास्त्रमें पारंगत थे।

श्रीरूद्रसंप्रदाय के श्रीविल्वमंगलाचार्यजी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षरगोपालमन्त्र की दीक्षा दी गई। त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ से प्राप्त हुई। विवाह पंडित श्रीदेवभट्टजीकी कन्या- महालक्ष्मीसे हुआ, और यथासमय दो पुत्र हुए- श्री गोपीनाथ श्रीविट्ठलनाथ।भगवत्प्रेरणावशव्रज में गोकुल पहुंचे, और तदनन्तर व्रजक्षेत्रस्थित गोवर्द्धन पर्वत पर अपनी गद्दी स्थापित कर शिष्य पूरनमल खत्री के सहयोग से संवत् 1576में श्रीनाथ जी के भव्य मंदिर का निर्माण कराया। वहां विशिष्ट सेवा-पद्धति के साथ लीला-गान के अंतर्गत श्रीराधाकृष्णकी मधुरातिमधुरलीलाओं से संबंधित रसमय पदों की स्वर-लहरी का अवगाहन कर भक्तजन निहाल हो जाते।

श्रीवल्लभाचार्यजीके मतानुसार तीन स्वीकार्य तत्त्‍‌ हैं-ब्रह्म, जगत् और जीव। ब्रह्म के तीन स्वरूप वर्णित हैं-आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं अंतर्यामी रूप। अनंत दिव्य गुणों से युक्त पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को ही परब्रह्म स्वीकारते हुए उनके मधुर रूप एवं लीलाओं को ही जीव में आनंद Justify Fullके आविर्भाव का स्त्रोत माना गया है। जगत् ब्रह्म की लीला का विलास है। संपूर्ण सृष्टि लीला के निमित्त ब्रह्म की आत्म-कृति है।

जीवों के तीन प्रकार हैं- पुष्टि जीव जो भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहते हुए नित्यलीला में प्रवेश के अधिकारी बनते हैं), मर्यादा जीव [जो वेदोक्त विधियों का अनुसरण करते हुए भिन्न-भिन्न लोक प्राप्त करते हैं] और प्रवाह जीव [जो जगत्-प्रपंच में ही निमग्न रहते हुए सांसारिक सुखोंकी प्राप्ति हेतु सतत् चेष्टारतरहते हैं]

भगवान् श्रीकृष्ण भक्तों के निमित्त व्यापी वैकुण्ठ में [जो विष्णु के वैकुण्ठ से ऊपर स्थित है] नित्य क्रीडाएं करते हैं। इसी व्यापी वैकुण्ठ का एक खण्ड है- गोलोक, जिसमें यमुना, वृन्दावन, निकुंज गोपियां सभी नित्य विद्यमान हैं। भगवद्सेवाके माध्यम से वहां भगवान की नित्य लीला-सृष्टि में प्रवेश ही जीव की सर्वोत्तम गति है।

प्रेमलक्षणाभक्ति उक्त मनोरथ की पूर्ति का मार्ग है, जिस ओर जीव की प्रवृत्ति मात्र भगवद्नुग्रहद्वारा ही संभव है। श्री मन्महाप्रभुवल्लभाचार्यजी के पुष्टिमार्ग [अनुग्रह मार्ग] का यही आधारभूत सिद्धांत है। पुष्टि-भक्ति की तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएं हैं-प्रेम,आसक्ति और व्यसन। मर्यादा-भक्ति में भगवद्प्राप्तिशमदमादिसाधनों से होती है, किंतु पुष्टि-भक्ति में भक्त को किसी साधन की आवश्यकता होकर मात्र भगवद्कृपाका आश्रय होता है। मर्यादा-भक्ति स्वीकार्य करते हुए भी पुष्टि-भक्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है। पुष्टिमार्गीयजीव की सृष्टि भगवत्सेवार्थही है- भगवद्रूपसेवार्थ तत्सृष्टिर्नान्यथाभवेत्।प्रेमपूर्वक भगवत्सेवाभक्ति का यथार्थ स्वरूप है-भक्तिश्च प्रेमपूर्विकासेवा। भागवतीयआधार (कृष्णस्तु भगवान् स्वयं) पर भगवान कृष्ण ही सदा सर्वदासेव्य, स्मरणीय तथा कीर्तनीयहैं- सर्वदा सर्वभावेनभजनीयोब्रजाधिप:..तस्मात्सर्वात्मना नित्यंश्रीकृष्ण: शरणंमम।

ब्रह्म के साथ जीव-जगत् का संबंध निरूपण करते हुए उनका मत था कि जीव ब्रह्म का सदंश[सद् अंश] है, जगत् भी ब्रह्म का सदंशहै। अंश एवं अंशी में भेद होने के कारण जीव-जगत् और ब्रह्म में परस्पर अभेद है। अंतर मात्र इतना है कि जीव में ब्रह्म का आनंदांशआवृत्त रहता है, जबकि जड जगत में इसके आनन्दांशव चैतन्यांशदोनों ही आवृत्त रहते हैं।

श्रीशंकराचार्यके अद्वैतवाद केवलाद्वैतके विपरीत श्रीवल्लभाचार्यके अद्वैतवाद में माया का संबंध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों का ऐक्य प्रतिपादित किए जाने के कारण ही उक्त मत शुद्धाद्वैतवाद कहलाया [जिसके मूल प्रवर्तकाचार्यश्री विष्णुस्वामीजीहैं]

वल्लभाचार्यजी के चौरासी शिष्यों में अष्टछापकविगण- भक्त सूरदास,कृष्णदास,कुम्भनदासव परमानन्द दास प्रमुख थे। श्री अवधूतदासनामक परमहंस शिष्य भी थे। सूरदासजीकी सच्ची भक्ति एवं पद-रचना की निपुणता देख अति विनयी सूरदासजी को भागवत् कथा श्रवण कराकर भगवल्लीलागानकी ओर उन्मुख किया तथा उन्हें श्रीनाथजीके मन्दिर की कीर्त्तन-सेवासौंपी। तत्व ज्ञान एवं लीला भेद भी बतलाया-श्रीवल्लभगुरू तत्त्‍‌ सुनायोलीला-भेद बतायो[सूरसारावली] सूर की गुरु के प्रति निष्ठा दृष्टव्य है- भरोसो दृढ इन चरननकेरो।श्रीवल्लभ-नख-चन्द-छटा बिनुसब जग मांझअधेरो॥श्रीवल्लभके प्रताप से प्रमत्तकुम्भनदासजी तो सम्राट अकबर तक का मान-मर्दन करने में नहीं झिझके- परमानन्ददासजीके भावपूर्ण पद का श्रवण कर महाप्रभु कई दिनों तक बेसुध पडे रहे। मान्यता है कि उपास्य श्रीनाथजीने कलि-मल-ग्रसित जीवों का उद्धार हेतु श्रीवल्लभाचार्यजीको दुर्लभ आत्म -निवेदन -मन्त्र प्रदान किया और गोकुल के ठकुरानी घाट पर यमुना महारानी ने दर्शन देकर कृतार्थ किया। उनका शुद्धाद्वैतका प्रतिपादक प्रधान दार्शनिक ग्रन्थ है-अणुभाष्य [ब्रह्मसूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा]।अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं- पूर्वमीमांसाभाष्य, भागवत के दशम स्कन्ध पर सुबोधिनी टीका, तत्त्‍‌वदीप निबन्ध एवं पुष्टि -प्रवाह-मर्यादा। संवत् 1587,आषाढ शुक्ल तृतीया को उन्होंने अलौकिक रीति से इहलीला संवरण कर सदेह प्रयाण किया। वैष्णव समुदाय उनका चिरऋणी है।

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