Sunday, December 28, 2008

गौड़ीय संप्रदाय के स्तंभ जीव गोस्वामी

चैतन्य महाप्रभु ने जिस गौडीयवैष्णव सम्प्रदाय की आधारशिला रखी गई थी, उसके संपोषण में उनके षण्गोस्वामियोंकी अत्यंत अहम् भूमिका रही। इन सभी ने भक्ति आंदोलन को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही वृंदावन के सप्त देवालयों के माध्यम से विश्व में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार किया। रसिक कवि कुल चक्र चूडामणि श्रीलजीवगोस्वामी महराज षण्गोस्वामी गणों में अन्यतम थे। उन्होंने परमार्थिकनि:स्वार्थ प्रवृत्ति से युक्त होकर सत्सेवाव जन कल्याण के जो अनेकानेक कार्य किए वह स्तुत्य हैं। चैतन्य महाप्रभु के सिद्धान्तानुसारहरिनाम में रुचि, जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा करना उनके स्वभाव में था।

वह मात्र 20वर्ष की आयु में ही सब कुछ त्याग कर वृंदावन में अखण्ड वास करने आ गए थे। उनका भक्तिभावव वैराग्य अद्भुत था। भक्त-श्रद्धालओं के द्वारा उनके पास जो भी धन आता था, उसे वह अत्यन्त आदर के साथ यमुना में विसर्जितकर देते थे। उन्होंने मीराबाईको रागानुगाभक्ति का रहस्य समझाते हुए उन्हें श्रीकृष्ण चैतन्य स्वरूप तत्व को हृदयंगम कराया था। ब्रजमण्डलमें युगल विग्रह की उपासना का शुभारंभ श्रीलजीव गोस्वामी ने ही किया था। साधु सेवा का विधान उन्हीं के द्वारा प्रारंभ हुआ। उन्हें गौडीयसम्प्रदाय का अपने गुरु के बाद दूसरा अध्यक्ष बनाया गया था।

श्रीलजीव गोस्वामी का जन्म पौषशुक्ल तृतीया, संवत् 1568(सन् 1511)को बंगाल के रामकेलिग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री अनुपम गोस्वामी था। उन्होंने अपनी बाल्यावस्था में ही अपने स्वाध्याय के द्वारा विभिन्न शास्त्रों, पुराणों, वेदों व उपनिषदों आदि पर असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिया था। वह श्रीमद्भागवत के अनन्य अनुरागी थे। उनकी शिक्षा दीक्षा काशी व वृंदावन में हुई।

एक रात्रि जब श्रीलरूप गोस्वामी सो रहे थे तब ठाकुर राधा दामोदर ने उन्हें यह स्वप्न दिया कि तुम अपने शिष्य व मेरे भक्त जीव गोस्वामी के लिए दामोदर स्वरूप को प्रकट करो। तुम मेरे प्रकट विग्रह को मेरी नित्य सेवा हेतु जीव गोस्वामी को दे देना। इस घटना के तुरन्त बाद जब रूप गोस्वामी यमुना स्नान करके आ रहे थे, तो उन्हें रास्ते में श्याम रंग का विलक्षण शिलाखण्ड प्राप्त हुआ। तत्पश्चात ठाकुर राधा दामोदर ने उन्हें अपने प्रत्यक्ष दर्शन देकर शिलाखण्ड को दामोदर स्वरूप प्रदान किया। यह घटना माघ शुक्ल दशमी, संवत् 1599(सन् 1542)की है।

यह दिन वृंदावन में ठाकुर राधा दामोदर प्राकट्य महोत्सव के रूप में अत्यन्त धूमधाम के साथ मनाया जाता है। स्वप्नादेशके अनुसार रूप गोस्वामी ने दामोदर विग्रह को अपने शिष्य जीव गोस्वामी को नित्य सेवा हेतु दे दिया। जीव गोस्वामी ने इस विग्रह को विधिवत् ठाकुर राधा दामोदर मंदिर के सिंहासन पर विराजितकर दिया। जीव गोस्वामी को अपने ठाकुर राधा दामोदर के युगल चरणों से अनन्य अनुराग था। उनके रसिक लाडले ठाकुर राधा दामोदर भी उन्हें कभी भी स्वयं से दूर नहीं जाने देते थे।

वह यदि कभी उनसे दूर चले भी जाएं, तो उनके ठाकुर उन्हें अपनी वंशी की ध्वनि से अपने समीप बुला लेते थे। श्रीलजीव गोस्वामी श्रृंगार रस के उपासक थे। सम्राट अकबर ने गंगा श्रेष्ठ है या यमुना, इस वितर्क को जानने के लिए जीव गोस्वामी को अपने दरबार में बडे ही सम्मान के साथ बुलाया था। इस पर उन्होंने शास्त्रीय प्रमाण देते हुए यह कहा कि गंगा तो भगवान का चरणामृत है और यमुना भगवान् श्रीकृष्ण की पटरानी। अतएव यमुना, गंगा से श्रेष्ठ है। इस तथ्य को सभी ने सहर्ष स्वीकार किया था। जीव गोस्वामी के द्वारा रचित ग्रंथ सर्व संवादिनी,षट्संदर्भ एवं श्री गोपाल चम्पू आदि विश्व प्रसिद्ध हैं। षट् संदर्भ न केवल गौडीयसम्प्रदाय का अपितु विश्व वैष्णव सम्प्रदायों का अनुपम दर्शन शास्त्र है। वस्तुत:यह ग्रंथ जीव गोस्वामी का अप्राकृत रसवाहीज्ञान-विज्ञान दर्शन है। षट् संदर्भ ग्रंथ का अध्ययन, चिन्तन व मनन उन व्यक्तियों के लिए परम आवश्यक है, जो भक्ति के महारससागर में डुबकी लगाना चाहते हैं। गौडीयवैष्णव सम्प्रदाय की बहुमूल्य मुकुट मणि श्रीलजीव गोस्वामी का अपने जन्म की ही तिथि व माह में पौषशुक्ल तृतीया, संवत् 1653(सन् 1596)को वृंदावन में निकुंज गमन हो गया। वृंदावन के सेवाकुंजमोहल्ला स्थित ठाकुर राधा दामोदर मंदिर में जीव गोस्वामी का समाधि मंदिर स्थापित है। यहां उनकी वह याद प्रक्षालन स्थली भी है, जिसकी रज का नित्य सेवन करने से प्रेम रूपी पंचम पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है और व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।


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