Sunday, December 28, 2008

ज्ञान और स्वाभिमान के संवाहक परशुराम



शक्ति-संघर्ष का परिणाम अक्सर सुखद नहीं होता। इस तरह समाज की दो धाराओं में द्वंद्व की स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं, लेकिन क्षत्रिय के लिए उपयुक्त कर्म और ब्राह्मणोचितज्ञान में संतुलन के अनुपम उदाहरण परशुराम का सत्तासीन राजा कार्तवीर्यअर्जुन से संघर्ष आवश्यक ही कहा जाएगा। इसके परिणामस्वरूप समाज में विचलन की स्थिति समाप्त हो गई। राजा को शक्ति का दंभ था और ऋषि को ज्ञान पर स्वाभिमान तथा संघर्ष के औचित्य का भान।

हैहयवंशके कार्तवीर्यअर्जुन की वंश-बेल 21बार नष्ट करने के पीछे यूं तो परशुराम का प्रतिकार ही प्रमुख था, किंतु ऐसा कर उन्होंने यह बात जरूर स्थापित कर दी कि ज्ञान और तप का सम्मान सबको करना होगा, क्योंकि ये भारतीय संस्कृति के आधार-बिंदु हैं।

इतिहास में वर्णित है कि कार्तवीर्यअर्जुन के पुत्रों ने बलपूर्वक कामधेनु गाय प्राप्त करने के लिए ऋषि जमदग्निका वध कर दिया था। कार्तवीर्यको भगवान दत्तात्रेयकी कृपा से हजार भुजाओं का वरदान मिल गया था। दंभ से भरपूर कार्तवीर्यअर्जुन विप्र समाज को हेय समझता था। ब्राह्मणों, विद्वत्जनोंऔर ऋषियों को तिरष्कृतकरना और उनका वध कर देना उसके लिए जैसे कोई खेल था। परशुराम ने इसी का दंड राजा को दिया।

ग्रंथों में वर्णित है कि सहस्रबाहुकार्तवीर्यअर्जुन ने भृगुकुल का 21बार मान-हरण किया और प्रतिकार स्वरूप परशुधारीऋषि ने उसके वंश का 21बार संहार भी किया। वैसे, प्रतिशोध का कारण केवल अपमान नहीं था, अर्जुन पुत्रों ने परशुराम के पिता का वध कर दिया, तो ऋषि क्रोधाग्नि से घिर गए। पिता को वे ईश्वर से भी बडा मानते थे। गंधर्व नरेश चित्ररथके प्रति आकृष्ट हुईं मां रेणुका का भी परशुराम ने इसीलिए वध किया था, क्योंकि पिता की ऐसी इच्छा थी। फिर पिता से माता को पुनर्जीवित करने का आशीर्वाद भी मांगा।

मान्यता है कि वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को ही त्रेतायुग की शुरुआत हुई थी। यही अवसर था, जब सरस्वती नदी के तट पर बसने वाले ऋषि जमदग्नितथा उनकी पत्नी रेणुका के घर प्रदोषकालमें योग, वेद और नीति में पारंगत, तंत्रकर्मके साधक, ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालक परशुराम का जन्म हुआ था।

परशुराम साधारण ऋषि नहीं। पौैराणिक ग्रंथों में बताया गया है कि वे विष्णु के छठे अवतार थे। उन्होंने पशुपति शंकर की निरंतर साधना की। आशीर्वाद स्वरूप शिव ने उन्हें अपना परशु दिया और उसे धारण करने के कारण ही ऋषि को परशुराम, यानी परशु युक्त राम कहा गया। मानव जीवन के सूक्ष्म दर्शन का ज्ञान और आध्यात्मिक उच्चताके शिखर पर स्थापना..यह संतुलन परशुराम ही कर सकते थे, तभी तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी कहते हैं, हमहि तुम्हहिसरिबरिकस नाथा/ कहहुन कहां चरन कहंमाथा / राम मात्र लघु नाम हमारा / परसुसहित बड नाम तोहारा..।जिन्हें प्रभु नमन करते हों, उनकी महानता के बारे में कहना ही क्या?

परशुराम और कार्तवीर्यमें संघर्ष के कारण भारतीय ज्ञान और मीमांसा के प्रति लोगों की आस्था तो बढी, लेकिन कहीं न कहीं दो वर्गो और जातियों में कटुता में भी वृद्धि हुई थी। इसी संदर्भ में श्रीराम की परशुराम से निकटता प्रशंसनीय है, क्योंकि उन्होंने ज्ञान प्रसार और समाज-रक्षा के लिए अस्त्रों के संचालन का दायित्व पुन:अलग-अलग जातियों में जाने देने के लिए परशुराम को प्रेरित किया।

कुप्रवृत्तियोंका दमन करने के लिए शस्त्र का प्रयोग करने वाले परशुराम संहार और निर्माण, दोनों में कुशल थे। उन्होंने जाति का नहीं, अवगुण का ही सदैव विरोध किया। जो खल दंड करहुंनहिंतोरा / भ्रष्ट होय श्रुति मारगमोरा (रामचरित मानस, तुलसीदास) की लीक पर चलते हुए ज्ञान और स्वाभिमान के संवाहक संत परशुराम ने ऋषियों के सम्मान की रक्षा की। उन्होंने जातिगत विद्वेष को स्थान कभी नहीं दिया। जनक, दशरथ आदि राजाओं का समुचित सम्मान करने वाले परशुराम ने सीता स्वयंवर में श्रीराम की वास्तविकता जानने के बाद प्रभु के प्रति समर्पण भी किया था।

श्रीमद्भागवत महापुराणमें बताया गया है, अश्वत्थामा बलिव्र्यासोहनूमांश्चविभीषण: / कृप:परशुरामश्चसप्तैतेचिरजीविन:।स्पष्ट है कि परशुराम चिरजीवी हैं। अश्वत्थामा,हनुमान और विभीषण की भांति प्रभुस्वरूपपरशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है। आज जबकि शास्त्रगतज्ञान, सांस्कृतिक उच्चताकी स्थापना पुन:आवश्यक हो चुकी है, तब भगवान परशुराम से प्रेरणा लेनी ही होगी।

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