Sunday, December 28, 2008

भक्तिपथ प्रदर्शक देवर्षि नारद



अहो नारद धन्योऽसिविरक्तानांशिरोमणि:।

सदा श्रीकृष्णदा-सानामग्रणीर्योगभास्कर:॥

(श्रीमद्भागवत माहात्म्य)

सनकादिमुनीश्वरोंद्वारा वर्णित विरक्त शिरोमणि, श्रीकृष्णदासोंमें अग्रगण्य व भक्तियोगके भास्कर देवर्षिनारद, सृष्टिकर्ता साक्षात् ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण में उल्लेख है- ब्रह्माजीके कण्ठदेश(नरद) से उत्पत्तिवशनारद नामकरण हुआ। सृष्टि-विस्तार हेतु नारद की अवज्ञा से कुपित ब्रह्माजीने उन्हें ज्ञान लुप्त होने व पचास कामिनियोंका पति होने का शाप दिया। निरपराध नारद ने भक्ति में बाधक ब्रह्माजीको तीन कल्प व्यतीत होने तक तीनों लोकों में अपूज्य रहने का शाप दिया। गन्धर्व-योनि पाकर अधिक पूज्य होने के कारण अभिशप्त नारद का गुरु वशिष्ठ द्वारा नामकरण हुआ- उपबर्हण। उन्होंने दीर्घकाल तक चित्ररथगन्धर्व की पचास कन्याओं के साथ विहार किया। रम्भाअप्सरा का नृत्य देख सम्मोहित होने के कारण क्रुद्ध ब्रह्माजीने उन्हें शूद्र-योनि प्राप्त होने का शाप दिया, जिससे गोपराजद्रुमिलकी पत्‍‌नी कलावतीके गर्भ से उत्पन्न हो दासी-पुत्र कहलाए। तदनन्तर वैष्णवों की जूठन (सीथ प्रसादी) के पुण्य प्रभाव से ब्रह्मा के पुत्र हुए और नर-नारायण से प्राप्त ज्ञान (नार) का दाता होने के कारण नारद कहलाए नारं ददातीतिनारद:।

पांच वर्ष की बाल्यावस्था में सनक, सनन्दनव सनातन द्वारा तत्वज्ञान और सनत्कुमारद्वारा कल्पवृक्ष स्वरूप श्रीकृष्ण-मन्त्र (ॐश्रीं नमोभगवतेरासमण्ऽलेश्वरायश्रीकृष्णायस्वाहा) प्राप्त हुआ तथा सर्पदंशवशमाता की मृत्यु पश्चात गृह त्यागकर निराहारकठोर तप के प्रभाव से भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य झांकी के दर्शन हुए। कल्पान्त में प्रलयकालीनसमुद्र (एकार्णव) में शयन को उद्यत नारायण के हृदयक्षेत्रमें प्रवेश को तत्पर ब्रह्माजीके भीतर श्वास द्वारा प्रविष्ट और एक सहस्त्र चतुर्युगी उपरान्त, सृष्टि-सृजनकाल में उनकी इन्द्रियों से प्रकट हुए।

भगवान् द्वारा वैकुण्ठ अथवा योगियों के हृदय में न रहकर मात्र भक्तों के कीर्तन-स्थल पर निवास करने की बात नाहं वसामिवैकुण्ठेयोगिनांहृदयेन वै।मद्भक्तायत्र गायन्तितत्र तिष्ठामिनारद॥सुनकर प्रभु के गुणगान की ओर प्रवृत्त हुए। दक्ष के हर्यश्व नामक दस हजार पुत्र व तदनन्तर शबलाश्व नामक एक हजार पुत्र नारदजीके उपदेश के प्रभाववशप्रजासृष्टिके लक्ष्य से विरत हुए, तब क्रुद्ध दक्ष प्रजापति ने इन्हें वंशपरम्परा उच्छेद का दोषी मान लोक-लोकान्तरों में सदा भटकते रहने व कहीं ठौर न होने का शाप दिया।

वे जन्म-मृत्यु से रहित नित्यरूपधारीहैं, जिनका निज इच्छा से आविर्भाव अथवा तिरोभाव संभव है। वे भगवत्प्रेमीपरिव्राजक हैं, जिनका समस्त लोकों में स्वच्छन्द विचरण है। भगवान् के विशेष कृपापात्र व लीला-सहचर हैं। वे तत्त्‍‌वज्ञ, नीतिज्ञ, शास्त्रज्ञ, दिव्यस्मृतिवान्,त्रिकालज्ञ ज्योतिषी, वैद्यक-शास्त्र व व्याकरण पण्डित, अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रतधारी,प्राणियों को भगवद्भक्तिकी ओर उन्मुख करने वाले, कल्याणार्थ विवाद भी उत्पन्न कराने वाले परम हितैषी हैं।

श्रीमद्भागवत के अनुसार वे भक्ति के द्वादश आचार्यो में प्रमुख हैं। श्रीवृन्दावनधाममें भक्तिदेवीव उनके ज्ञान- वैराग्य पुत्रों के कष्टों से द्रवित हो सनकादिकी आज्ञानुरूपहरिद्वार के निकट आनन्द-घाट पर श्रीमद्भागवत कथा द्वारा ज्ञानयज्ञकर कष्ट-निवृत्ति की। उन्होंने अद्वितीय कलियुग में घर-घर व जन-जन में भक्ति की स्थापना करने की प्रतिज्ञा की है, कलिना सदृश: कोऽपियुगोनास्तिवरानने।तस्िमस्तवांस्थाययिष्यामिगेहेगेहेजने जने॥उनकी निश्चल प्रीतिवशभक्तिदेवीसदा उनके चित्त में निवास करती हैं, अहो नारद! धन्योऽसिप्रीतिस्तेनिश्चलामयि।न कदाचिदंविमुंचानिचित्तेस्थास्यामिसर्वदा॥

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